आलोक जब कोई अपना, अपना-सा नहीं रहता, तब रोती है आंख,मुस्कान पर अधिकार नहीं रहता। चला जाता है जब कोई अपना कि बुलाने पर नहीं आता, तब आलोक अपनों के गमों का कोई पारावार नहीं रहता। सुनाते हैं सभी अपने-अपने इष्ट को तमाम कड़वी बातें, आलोक फिर भी कहां कोई अपनों से पुनः मिल पाता है? नियति का ये कैसा निष्ठुर चाबुक हर किसी पर चलता है? रोता,तड़पता और पुनः जीवन जीने को उद्धत हो जाता है। जीवन और मृत्यु पर नहीं किसी का कोई अधिकार किन्तु, क्या मृत्युभोज की अनिवार्यता मृत्यु की ही तरह है नियत? ©आलोक अग्रहरि #मृत्यूभोज