यूॅं तो घर की दहलीज़ मेरी ज़िंदगी चाहे, या सरहदें, समंदर और आसमां लाॅंघती रहूॅं। प्यार तो अक्षरों में ढाई ही रहता हो चाहे, मैं तेरी तारीफों में, अक्सर नज़्में बनाती रहूॅं। गुमसुम-चुपचाप रहना मेरी फितरत चाहे, तुमसे दुनियाभर की बातों के पुल बाॅंधती रहूॅं। यूॅं तो तुम गुस्से में बहुत तेज़ लगते चाहे, मिटाने के लिए गुस्सा, बालों में तेल लगाती रहूॅं। कोई हुनर मेरे साथ रहने के लिए नहीं चाहे, गुज़रे वक्त के रुमाल पर अपने नाम बुनती रहूॅं। ये 'भाग्य' मेरे साथ चले या नहीं चले चाहे, अपनी चित्रकारी में तेरा मेरा साथ ही देखती रहूॅं। ♥️ Challenge-966 #collabwithकोराकाग़ज़ ♥️ इस पोस्ट को हाईलाइट करना न भूलें! 😊 ♥️ दो विजेता होंगे और दोनों विजेताओं की रचनाओं को रोज़ बुके (Rose Bouquet) उपहार स्वरूप दिया जाएगा। ♥️ रचना लिखने के बाद इस पोस्ट पर Done काॅमेंट करें।