जितनी बार गांव की तरफ जाती हूं, उतनी ही बार मेरी मोहब्बत दुगुनी हो जाती हैं। दुगुनी होती जाती है ये मोहब्बत, मेरे गांव से, गांव की उबड़ - खाबड़ गलियों से, उन कच्ची - पक्की सड़कों से, किसी बस के पीछे से उड़ती हुई धूल से, बारिश और मिट्टी के संगम से पनपी हुई सौंधी खुशबू से, और दुगुनी होती ये मोहब्बत, अपनेपन की मिट्टी से सहेजे हुए घर से। लेकिन गांव से शहर की ओर लौटते वक़्त, मोहब्बत एक कोने में सिमट कर अंगड़ाई लेने लग जाती है। और एक नई आज़ादी का एहसास होता हैं, आजाद होती हूं उस शहर में, किसी रोज़ की अनचाही नसीहत से, कान में चुभते हुए हर मीठे तानों से, कुछ नए पुराने मनगढ़त अफसानों से। और आज़ाद होती हूं उस शहर में, कई फुसफुसाहट भरे अरमानों से। किसी रोज़ ये सोच सोच के उलझती जाती हूं, कि मोहब्बत को चुन लिया जाए या फिर आज़ादी को। . . . . . "किसी रोज़ मोहब्बत चुन ली तो सपने रूठ जायेगें, और सपनों को चुन लिया तो अपने रूठ जायेगें।" #मोनिका वर्मा ©Monika verma #गांव_से_शहर_तक_का_सफर #सपनों_का_सफर #चलती_ट्रेन_का_सफर #poetry_love #touchthesky