#OpenPoetry कहीं वो दिलकश चेहरा नज़र नहीं आया गया वो सख्स फिर लौट के नहीं आया कहुँ तो किससे कहूँ के अब मंज़िल के पास सफर तमाम हुआ, हमसफ़र नहीं आया। मै वो मुसाफिर गम-ए मोहब्बत का रखवाला हूं जो घर पहोच कर भी सोचे घर नहीं आया जो तुमने इस दिल को इतना सताया ये जुर्म क्यों तुम्हारे सर नहीं आया। कभी कोई तेरे बारे में बात छेड़ दे तो क्या कहु कोई नामा-बार नहीं आया फिर एक वफ़ा का ख्वाब भर रहा है आँखों में एक रंग हिज्र की शब् जाग कर नहीं आया। मेरे लहू को, मेरे दिल के जख्मों को देख युही ये सलीक़ा और लिखने का हुनर नहीं आया न जाने हिज्र की शांमो मे शिवम् पे क्या गुजरी बहुत दिनों से दीवाना पागल नहीं आया। नामा-बार= डाकिया (पत्र लाने वाला) हिज्र= गंमो का वक्त शब् = रात --------------------------------------------- कहीं वो दिलकश चेहरा नज़र नहीं आया गया वो सख्स फिर लौट के नहीं आया कहुँ तो किससे कहूँ के अब मंज़िल के पास सफर तमाम हुआ, हमसफ़र नहीं आया।