इश्क-ए-नज्म में अपने मैं ताशीर-ए-रदीफ़ सा रहा, फ़ितरत-ए-काफ़िया सी वो हर साज पर बदलती रही।। जज़्बात फ़ितरत-ए-काफ़िया 🖋️ Description Explained @nojoto इश्क-ए-नज्म में अपने मैं ताशीर-ए-रदीफ़ सा रहा, फ़ितरत-ए-काफ़िया सी वो हर साज पर बदलती रही।। #mustread ग़ज़ल में शब्द के सही तौल, वज़न और उच्चारण की भाँति काफ़िया और रदीफ़ का महत्व भी अत्यधिक है। काफ़िया के तुक (अन्त्यानुप्रास) और उसके बाद आने वाले शब्द या शब्दों को रदीफ़ कहते है। काफ़िया बदलती है किन्तु रदीफ़ नहीं बदलता है। उसका रूप जस का तस रहता है।