212 212 212 212 अपने ग़म वो किसी को सुनाता नहीं, दुख को अपने तमाशा बनाता नहीं। भूल बैठा है अब वो भी सायद मुझे, वो मुझे भी तो अब याद आता नहीं। जैसे दादी सिखातीं सलीका हमे वैसे तो कोई भी अब सिखाता नहीं। मैं गुनाहों से अपने यू लबरेज़ हूँ, फिर भी वो रहमतें क्यों हटाता नहीं। वादा करता तो हैं वो सलीके से पर मसअला ये हैं वादा निभाता नहीं। ज़िंदगी ने किये होंगे कुछ तो सितम, क़त्ल यूँ खुद को कोई कराता नहीं। कुछ तो होतें है अशआर खुद के लिए, जो कि शायर किसी को सुनाता नहीं। Sabreen Nizam #simplicity #ghazal#ghazal