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कभी कभी तो सचमुच यकीन होने लगता है कि ज़िन्दगी वाक

 कभी कभी तो सचमुच यकीन होने  लगता है कि ज़िन्दगी वाकई  एक बड़ी खूबसूरत बला है।

शरीर-विज्ञान में नोबेल पुरस्कारप्राप्त चार्ल्स राबर्ट रिशेट ने कहा है: ‘‘अत्यन्त विचित्र, अत्यन्त विस्मयकारी, अत्यन्त असम्भाव्य प्रतीत होने वाली बातें अभी भी प्रत्यक्ष सामने आ सकती हैं जिनके एक बार प्रतिष्ठापित हो जाने पर हमें उसी तरह आश्चर्य नहीं होगा, जिस तरह गत एक शताब्दी के दौरान विज्ञान द्वारा किये गये आविष्कारों पर नहीं होता। ऐसा मान लिया जाता है कि जिन चमत्कारिक घटनाओं को हम अब बिना विस्मित हुए स्वीकार कर लेतें हैं, वे हमारी उत्कंठा को इसलिये उत्तेजित नहीं कर पातीं, कि उन्हें हम भलीभाँति समझ चुके होते हैं। पर बात ऐसी नहीं है। यदि हमें अब वे चकित नहीं करतीं तो इस का कारण यह नहीं है कि वे भलीभाँति हमारी समझ में आ चुकी हैं, बल्कि उसका कारण यह है कि वे हमारे लिये अब परिचित हो चुकी है; क्योंकि यदि ऐसा हो कि जो बातें हमारी समझ में न आयें वे हमें चकित करती रहें, तो हमें हर बात पर — हवा में उछाले गये पत्थर के गिरनेपर, बीज से वटवुक्ष बन जाने पर, गरमी पाकर पारे के फैलने पर, चुम्बक की ओर लोहे के खिंचने पर — आश्चर्यचकित होना चाहिये।
‘‘आज का विज्ञान तो फिर भी एक साधारण बात है ... जिन आश्चर्यकारक सत्यों का हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ आविष्कार करेंगी वे अभी भी हमारे चारों ओर विद्यमान हैं, और एक प्रकार से कहें तो हमारी आँखों में आँखें डालकर हमें घूर रही हैं; परन्तु फिर भी हम उन्हें नहीं देख पाते। केवल यह कहना कि हम उन्हें नहीं देख पाते, पर्याप्त नहीं है; हम उन्हें देखना ही नहीं चाहते, क्योंकि जैसे ही कोई अप्रत्याशित और अपरिचित तथ्य प्रकट होता है, हम उसे प्रचलित जानकारी की सर्वसामान्य चौखट में बिठा देने का प्रयास करते हैं, और कुपित हो उठते हैं कि यदि कोई उससे आगे के प्रयोग करने का दुस्साहस करता है!’’
 कभी कभी तो सचमुच यकीन होने  लगता है कि ज़िन्दगी वाकई  एक बड़ी खूबसूरत बला है।

शरीर-विज्ञान में नोबेल पुरस्कारप्राप्त चार्ल्स राबर्ट रिशेट ने कहा है: ‘‘अत्यन्त विचित्र, अत्यन्त विस्मयकारी, अत्यन्त असम्भाव्य प्रतीत होने वाली बातें अभी भी प्रत्यक्ष सामने आ सकती हैं जिनके एक बार प्रतिष्ठापित हो जाने पर हमें उसी तरह आश्चर्य नहीं होगा, जिस तरह गत एक शताब्दी के दौरान विज्ञान द्वारा किये गये आविष्कारों पर नहीं होता। ऐसा मान लिया जाता है कि जिन चमत्कारिक घटनाओं को हम अब बिना विस्मित हुए स्वीकार कर लेतें हैं, वे हमारी उत्कंठा को इसलिये उत्तेजित नहीं कर पातीं, कि उन्हें हम भलीभाँति समझ चुके होते हैं। पर बात ऐसी नहीं है। यदि हमें अब वे चकित नहीं करतीं तो इस का कारण यह नहीं है कि वे भलीभाँति हमारी समझ में आ चुकी हैं, बल्कि उसका कारण यह है कि वे हमारे लिये अब परिचित हो चुकी है; क्योंकि यदि ऐसा हो कि जो बातें हमारी समझ में न आयें वे हमें चकित करती रहें, तो हमें हर बात पर — हवा में उछाले गये पत्थर के गिरनेपर, बीज से वटवुक्ष बन जाने पर, गरमी पाकर पारे के फैलने पर, चुम्बक की ओर लोहे के खिंचने पर — आश्चर्यचकित होना चाहिये।
‘‘आज का विज्ञान तो फिर भी एक साधारण बात है ... जिन आश्चर्यकारक सत्यों का हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ आविष्कार करेंगी वे अभी भी हमारे चारों ओर विद्यमान हैं, और एक प्रकार से कहें तो हमारी आँखों में आँखें डालकर हमें घूर रही हैं; परन्तु फिर भी हम उन्हें नहीं देख पाते। केवल यह कहना कि हम उन्हें नहीं देख पाते, पर्याप्त नहीं है; हम उन्हें देखना ही नहीं चाहते, क्योंकि जैसे ही कोई अप्रत्याशित और अपरिचित तथ्य प्रकट होता है, हम उसे प्रचलित जानकारी की सर्वसामान्य चौखट में बिठा देने का प्रयास करते हैं, और कुपित हो उठते हैं कि यदि कोई उससे आगे के प्रयोग करने का दुस्साहस करता है!’’

कभी कभी तो सचमुच यकीन होने लगता है कि ज़िन्दगी वाकई एक बड़ी खूबसूरत बला है। शरीर-विज्ञान में नोबेल पुरस्कारप्राप्त चार्ल्स राबर्ट रिशेट ने कहा है: ‘‘अत्यन्त विचित्र, अत्यन्त विस्मयकारी, अत्यन्त असम्भाव्य प्रतीत होने वाली बातें अभी भी प्रत्यक्ष सामने आ सकती हैं जिनके एक बार प्रतिष्ठापित हो जाने पर हमें उसी तरह आश्चर्य नहीं होगा, जिस तरह गत एक शताब्दी के दौरान विज्ञान द्वारा किये गये आविष्कारों पर नहीं होता। ऐसा मान लिया जाता है कि जिन चमत्कारिक घटनाओं को हम अब बिना विस्मित हुए स्वीकार कर लेतें हैं, वे हमारी उत्कंठा को इसलिये उत्तेजित नहीं कर पातीं, कि उन्हें हम भलीभाँति समझ चुके होते हैं। पर बात ऐसी नहीं है। यदि हमें अब वे चकित नहीं करतीं तो इस का कारण यह नहीं है कि वे भलीभाँति हमारी समझ में आ चुकी हैं, बल्कि उसका कारण यह है कि वे हमारे लिये अब परिचित हो चुकी है; क्योंकि यदि ऐसा हो कि जो बातें हमारी समझ में न आयें वे हमें चकित करती रहें, तो हमें हर बात पर — हवा में उछाले गये पत्थर के गिरनेपर, बीज से वटवुक्ष बन जाने पर, गरमी पाकर पारे के फैलने पर, चुम्बक की ओर लोहे के खिंचने पर — आश्चर्यचकित होना चाहिये। ‘‘आज का विज्ञान तो फिर भी एक साधारण बात है ... जिन आश्चर्यकारक सत्यों का हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ आविष्कार करेंगी वे अभी भी हमारे चारों ओर विद्यमान हैं, और एक प्रकार से कहें तो हमारी आँखों में आँखें डालकर हमें घूर रही हैं; परन्तु फिर भी हम उन्हें नहीं देख पाते। केवल यह कहना कि हम उन्हें नहीं देख पाते, पर्याप्त नहीं है; हम उन्हें देखना ही नहीं चाहते, क्योंकि जैसे ही कोई अप्रत्याशित और अपरिचित तथ्य प्रकट होता है, हम उसे प्रचलित जानकारी की सर्वसामान्य चौखट में बिठा देने का प्रयास करते हैं, और कुपित हो उठते हैं कि यदि कोई उससे आगे के प्रयोग करने का दुस्साहस करता है!’’