बेवफा है रात जो नींद से जुदाई करवाती है, मेरे ख्वाबों से हर बार रुसवाई करवाती है, उलझन है कि खाली महफ़िल और खाली मर्तबान था, कोई मुझको बता दे कि आख़िर मेरा जुर्म क्या था। थामने को दामन कहां कोई सामने आया है, शायद मेरे गुनाहों का रंग नहीं उतर पाया है, मेरी तिमिर की परछाई पर मुझे गुमान था, कोई मुझको बता दे कि आखिर मेरा जुर्म क्या था। सेहराओं पर ठहरी मेरी मुल्क-ए- इनायत थी, बंद मुट्ठियों में रखी तेरे सजदे की आयत थी, रात तन्हा करेगी इसका मुझे भी अनुमान था, यही समझ नहीं पाया कि आख़िर मेरा जुर्म क्या था। किसी ने कहा कि भरोसा रख तुझको भी साथ मिलेगा, पर कैसे समझी की ये परवाज़ कहां खिलेगा, मुझे दोषी ठहराते मेरे अपनों का ही ज़बान था, समझ नहीं आया कि आखिर मेरा जुर्म क्या था। लोग कभी-कभी ऐसे पेश आते हैं कि मन सोच में पड़ जाता है, आख़िर मेरा जुर्म था क्या? #मेराजुर्म #collab #yqdidi #YourQuoteAndMine Collaborating with YourQuote Didi