मन जब भी अपनी मनमानी करता है। हमें औरो से अलग कर देता है। कभी भीड़ में भी तन्हा कर देता है। और कभी अकेले में मौज मिल जाती है। कभी हम ढूंढ़ते हैं किसी को । अपने मन की सुनाने की खातिर। कभी हम छुप जाते हैं सभी से। अपने मन की बात छुपने की खातिर। सब खेल मन ही रचाता है। कभी किसी को करीब। किसी को दूर ले जाता है। मन की चंचलता सब पर भारी पड़ जाती है। कभी कोई बहुत बुरा हो कर भी। हमे अच्छा लगता है लेकिन क्यों। कभी कोई इतनी फिकर करता है। लेकिन मन को नहीं भाता। मन एक अथाह समुद्र है। जिसमे विचारो की कश्तियां हिलोरे खाती है। मंथन करता है मन अपने आप से। कभी करता है अपनी मर्जी। कभी करता है चालकिया। सही गलत भूल कर। जिसे वो पसंद करता है उसे चाहता है। #अनुराज ©Anuraag Bhardwaj #sadak