आँधियों का दौर है, चारों तरफ शोर है.. किसी का किसी पर नहीं जोर है.. मौत का खौफ है पर आगे बढ़ने का शौक है.. मुसीबतों से रोज दो-चार होता है इंसा, फिर भी लगता वो बेख़ौफ़ है.. अंधेरों में उम्मीद की एक किरण देख चमक जाता है वो.. दूजे ही पल एक नई मुसीबत देख दुबक जाता हैं वो.. पत्थरों को दूध पिला ढूढ़ता वो भगवान है.. जिंदो का हक मार पाता वो सम्मान है.. जीवन के इस खेल में, न जाने कितने जेल में.. ग़रीबी, भुखमरी के चलते, न जाने कितने इंसा है सेल में... न जाने कब तक उम्मीदों का दामन थामना होगा... इंसानी भेड़ियों से न जाने कब तक सामना होगा.. न जाने कब तक उम्मीदों का दिया दिल मे जलाना होगा.. क्या उम्मीदों के अंगारों पर ही, जीवन बिताना होगा... न जाने कितने सवाल है मन में.. चहरों पर देख मुखौटों को, आग लग जाती है तन-बदन में.. आग लग जाती है तन-बदन में.. ©Satyendra satyam आँधियों का दौर... #NationalSimplicityDay