मैंने जब उससे अपनी मोहब्बत का इज़हार किया था, मुक़र्रर मुक़र्रर !कह के कमबख़्त, ने इकरार किया था। कोई ज़बरदस्ती तो न की थी मैंने, मेरी मोहब्बत कबूलने की, खता क्या थी मेरी? संगदिल ने मुझे रुस्वा सरे बज़ार किया था। कभी ना बिछड़ने का वादा किया था कभी,उसने बेवफ़ा के ऐसे जुमलों पर, आँख मूंद कर ऐतबार किया था। जीना ना सकेंगे, हम तेरे बिन,कभी दग़ा न करना, कई बार उस दगाबाज़ ने, गले लगाकर ये इसरार किया था। ख़्वाबों के परिंदे आसमाँ से आगे उड़ चले थे हक़ीक़त की आँधी ने, उंनका घरोंदा तार तार किया था। इश्क़ में हदो से गुजरने की तमन्ना थी मेरी, ख्वाहिशें परवान चढ़ी भी न थीं, उसकी बेरुख़ी ने तार तार किया था। जब मैंने,उससे अपनी मोहब्बत का इज़हार किया था, मुक़र्रर मुक़र्रर! कह के कमबख़्त, ने इकरार किया था। 🎀 Challenge-205 #collabwithकोराकाग़ज़ 🎀 यह व्यक्तिगत रचना वाला विषय है। 🎀 कृपया अपनी रचना का Font छोटा रखिए ऐसा करने से वालपेपर खराब नहीं लगता और रचना भी अच्छी दिखती है। 🎀 विषय वाले शब्द आपकी रचना में होना अनिवार्य नहीं है। आप अपने अनुसार लिख सकते हैं। कोई शब्द सीमा नहीं है।