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एकाएक यूंँ ही, गहन निद्रा से खोल नयन, रिक्त सा उदा

एकाएक यूंँ ही,
गहन निद्रा से खोल नयन,
रिक्त सा उदास मन!
शिथिल सा बिछा,
बिस्तर पर ही,
ज़हन भारी सा मानो,
रक्त बहते ठहर गया,
हो रहा बेबस अंतर्मन,
और रिक्त सा उदास मन!
शायद शाम का रंग
और इक याद,
घुलमिल कर घुमड़ रही,
भर रही पीड़ा हृदय में,
तेरे ना होने की,
तेरे ना आने की,
दर्द का कोहरा सघन
और रिक्त सा उदास मन!
आवरण इक ओढ़ के
चंँचल स्मित अधरों पे,
रोज़ धारे धर रही थी,
नए रूप नए रंग,
शय्या के कोने में फंँसा 
तुम्हारी कमीज़ का बटन,
करे चीर हरण और
बस रिक्त सा उदास मन!
     एकाएक यूं ही,
गहन निद्रा से खोल नयन,
रिक्त सा उदास मन!
शिथिल सा बिछा,
बिस्तर पर ही,
ज़हन भारी सा मानो,
रक्त बहते ठहर गया,
हो रहा बेबस अंतर्मन,
एकाएक यूंँ ही,
गहन निद्रा से खोल नयन,
रिक्त सा उदास मन!
शिथिल सा बिछा,
बिस्तर पर ही,
ज़हन भारी सा मानो,
रक्त बहते ठहर गया,
हो रहा बेबस अंतर्मन,
और रिक्त सा उदास मन!
शायद शाम का रंग
और इक याद,
घुलमिल कर घुमड़ रही,
भर रही पीड़ा हृदय में,
तेरे ना होने की,
तेरे ना आने की,
दर्द का कोहरा सघन
और रिक्त सा उदास मन!
आवरण इक ओढ़ के
चंँचल स्मित अधरों पे,
रोज़ धारे धर रही थी,
नए रूप नए रंग,
शय्या के कोने में फंँसा 
तुम्हारी कमीज़ का बटन,
करे चीर हरण और
बस रिक्त सा उदास मन!
     एकाएक यूं ही,
गहन निद्रा से खोल नयन,
रिक्त सा उदास मन!
शिथिल सा बिछा,
बिस्तर पर ही,
ज़हन भारी सा मानो,
रक्त बहते ठहर गया,
हो रहा बेबस अंतर्मन,