देकर के हम सौगात क्यों जज्बात गढ़ते हैं? हम करते ही क्यों शुरुआत? जो फिर बात बढ़ते हैं? और आग की लपटें यू ही ठंडी नहीं परती, जब वो आंसुओं की धूप में बरसात करते हैं। ये रहे मेरे कुछ अंकुरित पुष्प,जो जुबान नहीं कहता वो ये बेजुबान लेखनी कह देती है