तरस गए हम खुद का वजूद खोजते खोजते मिला तो अन्त में बस खाक ही उर्म बीत गयी खुशियाँ बाँटते बाँटते मेरे नसीब में बस राख आयी बनी मैं बेटी से बहू कभी तो बीबी से माँ के रूप मे आयी ये गम है कभी मैं इन्सान ना कहलायी माना मर्जी से बनी थी मैं गृहणी पर मर्जी धीरे धीरे मजबूरी बन आयी वजूद हो सकता था मेरा भी पर परिवार की खुशियो को मैं पहले लायी अपना वजूद मिलने से पहले ही मैं खो आयी मैं घर में गृहणी बनकर आयी सुबह से शाम घर को सम्भाला उर्म पूरी मैंने चार दिवारों में गुजारो उनके(पति) दर्द पे मेरी आँखें भर आयी उनके लिए मैंने अपनी सारी खुशिया दफनायी पर सुनने को मैं बस इतना पायी करती ही क्या हो , हर तरफ से ये आवाज आयी मैं घर में गृहणी बनकर आयी गुस्सा उनका मैं चुप ही सह गयी अब बारी थप्पड़ की आयी औरत होने की मैंने वाह क्या सजा पायी मैं घर में गृहणी बनकर आयी मैं घर में गृहणी बनकर आयी।। गृहणी बनकर आयी