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वैज्ञानिकों का मानना है कि प्रकृति का सारा खेल ऊर्

वैज्ञानिकों का मानना है कि
प्रकृति का सारा खेल
ऊर्जा और पदार्थ के
एक-दूसरे में परिवर्तित होने के
सिद्धांत पर चलता है।
इनको देखना, समझना और मापना संभव है।
जब भावनाओं के द्वारा हमारे
मन और शरीर में विभिन्न क्रियाओं
का संचालन होता है तो निश्चित है कि
वहां ऊर्जा है शक्ति है।
सृष्टि की समस्त ऊर्जा सामग्री का
सम्बन्ध पदार्थ से होता है।
यह भी सत्य है कि
यह ऊर्जा अति सूक्ष्म है। :😊Good morning ji😊💕🙏🍨👨🍀☕☕☕☕☕☕☕☕☕☕
 इसी कारण यह वैश्विक अंतरिक्षीय ऊर्जा का अंग है और उसी के साथ एक जीव होकर कार्य करती है। एक ही प्रकार के सिद्धांत दोनों ऊर्जाओं पर लागू होते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि हम सीधे प्रकृति से जुड़े हैं और हमारे कार्यकलापों का नियमन भी प्रकृति ही करती है। हमारा आभा-मंडल पृथ्वी के आभा-मंडल से सीधा जुड़ा रहता है। हमारा जीवन पृथ्वी पर निर्भर करता है। पृथ्वी सूर्य-चन्द्रमा आदि से जुड़ी है।
:🍨🍨🍀☕🍫🌱🍧☘💕🙏🍉
रोजलिन लिखते हैं कि जब भी हम भय, क्रोध, जैसे आवेगों को दबाते हैं अथवा इनके प्रति लापरवाही बरतते हैं तो हमारे मूलाधार की गति में अवरोध पैदा होता है। स्वयंजनित भय भी मूलाधार को प्रभावित करता है और बाहरी भय स्वाधिष्ठान को पहले प्रभावित करता है। बढ़ने की अवस्था में यह भी मूलाधार में ही पहुंच जाता है। शरीर और बुद्धि को होने वाले सभी अनुभव मूलाधार से होकर ही हमारे स्नायुतंत्र में जाते हैं।
:😊😊
भय तथा आवेग का असन्तुलन रक्तचाप और ह्वदय विकार को प्रभावित करता है। व्यक्ति के मन से जीवन-भाव बिखरने लगता है। दवाओं से शरीर की प्रतिक्रिया दब जाती है, किन्तु जीवन-भाव नहीं लौटता। इसके लिए दो ही उपाय हैं। एक बिखरी हुई रक्त-ऊर्जा को पुन: मूलाधार में लाना, ताकि व्यक्ति फिर से जीवन्त हो सके।
💕💕💕🙏🙏🙏🍀🍀🍀☕☕🍫🍉🍉🍧🍧👨🌱☘☘
जय श्री कृष्ण 💕💕🙏🙏🙏👨🍧🌱☘
वैज्ञानिकों का मानना है कि
प्रकृति का सारा खेल
ऊर्जा और पदार्थ के
एक-दूसरे में परिवर्तित होने के
सिद्धांत पर चलता है।
इनको देखना, समझना और मापना संभव है।
जब भावनाओं के द्वारा हमारे
मन और शरीर में विभिन्न क्रियाओं
का संचालन होता है तो निश्चित है कि
वहां ऊर्जा है शक्ति है।
सृष्टि की समस्त ऊर्जा सामग्री का
सम्बन्ध पदार्थ से होता है।
यह भी सत्य है कि
यह ऊर्जा अति सूक्ष्म है। :😊Good morning ji😊💕🙏🍨👨🍀☕☕☕☕☕☕☕☕☕☕
 इसी कारण यह वैश्विक अंतरिक्षीय ऊर्जा का अंग है और उसी के साथ एक जीव होकर कार्य करती है। एक ही प्रकार के सिद्धांत दोनों ऊर्जाओं पर लागू होते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि हम सीधे प्रकृति से जुड़े हैं और हमारे कार्यकलापों का नियमन भी प्रकृति ही करती है। हमारा आभा-मंडल पृथ्वी के आभा-मंडल से सीधा जुड़ा रहता है। हमारा जीवन पृथ्वी पर निर्भर करता है। पृथ्वी सूर्य-चन्द्रमा आदि से जुड़ी है।
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रोजलिन लिखते हैं कि जब भी हम भय, क्रोध, जैसे आवेगों को दबाते हैं अथवा इनके प्रति लापरवाही बरतते हैं तो हमारे मूलाधार की गति में अवरोध पैदा होता है। स्वयंजनित भय भी मूलाधार को प्रभावित करता है और बाहरी भय स्वाधिष्ठान को पहले प्रभावित करता है। बढ़ने की अवस्था में यह भी मूलाधार में ही पहुंच जाता है। शरीर और बुद्धि को होने वाले सभी अनुभव मूलाधार से होकर ही हमारे स्नायुतंत्र में जाते हैं।
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भय तथा आवेग का असन्तुलन रक्तचाप और ह्वदय विकार को प्रभावित करता है। व्यक्ति के मन से जीवन-भाव बिखरने लगता है। दवाओं से शरीर की प्रतिक्रिया दब जाती है, किन्तु जीवन-भाव नहीं लौटता। इसके लिए दो ही उपाय हैं। एक बिखरी हुई रक्त-ऊर्जा को पुन: मूलाधार में लाना, ताकि व्यक्ति फिर से जीवन्त हो सके।
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