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दिल में हमारे गुबार-ओ-कसक ज़्यादा है, पर करें क्या

दिल में हमारे गुबार-ओ-कसक ज़्यादा है,
पर करें क्या गैरों का उसपे हक़ ज़्यादा है।

मैंने मतले में उसे चाँद कहा और जाना,
कि तारीफ़ में उसकी ये वरक़ ज़्यादा है।

मैं मुंतज़िर-ए-दीद तो हूँ पर पहली सफ़ नहीं चुनूँगा,
यार अंधा हो जाऊंगा, उसकी चमक बहुत ज़्यादा है।

आजकल वो बेनक़ाब फिरती है सड़कों पर,
आजकल शहर के दिलों की धकधक बहुत ज़्यादा है।

©SB Studio
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