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मुक्तक बरसके बूंदें जो तन पे लागी न जाने कैसे ये प

मुक्तक
बरसके बूंदें जो तन पे लागी न जाने कैसे ये प्यास जागी,
अनादि से अन्त तक बुझाया सुलगके कैसे ये आस जागी।
अलग अलग तत्व दो भले हों विलीन होकर विलग नहीं हैं,
क्षितिज पे अभिषेक द्वैत का है क्या मैं अभागा क्या तूं अभागी।

©® संजय शर्मा 'सरस'

मुक्तक बरसके बूंदें जो तन पे लागी न जाने कैसे ये प्यास जागी, अनादि से अन्त तक बुझाया सुलगके कैसे ये आस जागी। अलग अलग तत्व दो भले हों विलीन होकर विलग नहीं हैं, क्षितिज पे अभिषेक द्वैत का है क्या मैं अभागा क्या तूं अभागी। ©® संजय शर्मा 'सरस'

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