" चीख-पुकार " चीख-पुकार सी मची है, मेरे अंदर भी, और बाहर भी| चीख-पुकार के दलदल में, मेैं गोते लगाती हुई | समाज में चल रहे इंसान रूपी तांडव को, मैं देखती हुई | विनाश के छोर पर खड़ी, इस संपूर्ण सृष्टि को, मैं ताकती हुई | इस चीख-पुकार के बीच से, मैं निकलने की, कोशिश करती हुई | समाज की हर दुर्घटना को, देखकर मैं, अपनी लाचारी की, आत्मग्लानि से जूझती हुई | निर्दयता से आघात पड़े, जर्रे जर्रे की पीड़ा को, मैं महसूस करती हुई | समाज की बहोत सी कड़ियां , में देखती हुई | रसूखदार, व्यक्ति की ताकत, निर्बल व्यक्ति और किसी बेजुबान मासूम को, रौंदकर जाती हुई | पीड़ा का ऐसा अपार सागर, जिसे सहन न कर पाने की, ज्वाला में मेैं जलती हुई| खुद से अतिरिक्त, दूसरे की पीड़ा को, अनुभव न कर पाने वाले , संसार रूपी सागर से, मैं गुजरती हुई | केवल और केवल, स्वार्थ के दलदल में, धंसी इस दुनिया को मैं देखती हुई | समाज की दुर्दशा, और पीड़ा का अनुभव, करते हुए मैं, अपनी लाचारी और बेबसी से, मरती हुई | " चीख-पुकार सी मची है, मेरे अंदर भी और बाहर भी " -उमंग गंगानिया # चीख पुकार।