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आहत था परेशान था विचलित था बेटी का पिता था उसकी मं

आहत था परेशान था विचलित था
बेटी का पिता था उसकी
मंगल कामना के लिए परेशान था
बेटी जो दिल का टुकड़ा थी
जिसे गोद में लेकर आसमां को छूने का
सपना पिता ने देखा था
बस उसकी कुशलता के लिए परेशान था
बस उसकी एक मुस्कान के लिए
जमाने भर से लड़ जाता था
उसे उदास देख कर खुद उदास हो जाता था
कुछ चाहा नहीं था बदले में
बस उसकी खुशी और सपनों के लिए
उसकी हर जिद्द को पूरा किया था
उसका हर सपना सहेज रखा था
वो हंसती थी तो वह भी हंसता था
वो रोती थी तो दर्द दिल में होता था
अब भी आहत हो जाता हूं
उसकी मनमानी से मैं नाराज़ हो जाता हूं
वो आज भी बचपन जैसी जिद्दी है
पिता हूं मैं वो समझती क्यों नहीं है
आज भी प्यार उससे बेपनाह है
उसकी जिद्द आगे लाचार नहीं हूं
बस पिता हूं इसलिए उसके लिए सोचता हूं
जब तक शरीर में प्राण हैं
मेरा रोम-रोम उसके लिए कुर्बान ह

©Beena Kumari
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