कभी चलाती है कभी उछालती है कभी मारती है कभी पुचकारती है माँ! कभी अंग लगाती कभी फटकारती है कभी डाँटती है कभी दुलारती है माँ! यदाकदा ग्रहण कह देती क्रोध में और कभी सौ तरह से नज़र उतारती है माँ ख़ुद फटा पहन कर भी ख़ुश रहती है किन्तु मुझे राजकुमारी सा सजाती है माँ! ख़ुद काँटों में जीवन बिता लेती है मगर, मेरा पथ आँचल से बुहारती है माँ! क्या कहूँ और मैं मेरी माँ के लिए...निःशब्द हूँ वो सर्वस्व निछावर कर चुकी है मुझपे सब सुख त्याग कर जीवन सँवारती है माँ! कभी चलाती है कभी उछालती है कभी मारती है कभी पुचकारती है माँ! कभी अंग लगाती कभी फटकारती है कभी डाँटती है कभी दुलारती है माँ! यदाकदा ग्रहण कह देती क्रोध में और कभी सौ तरह से नज़र उतारती है माँ