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इश्क ना जाने क्या बला हैं ये, गर मुकम्मल तो, गुल

इश्क 

ना जाने क्या बला हैं ये,
गर मुकम्मल तो,
गुलाब की तरह महकती रहे,
गर अधूरी तो,
खंजर की तरह हर क्षण चुभती रहे।

इसका होना या ना होना भी,
तय करना बस में नहीं,
बस होती हैं तो हो जाती हैं,
वक्त, हालत, वर्ण, रंग, 
कुछ भी कहां ये  देखती हैं।

राहों पर इसके चलना,
सबके बस की बात नहीं,
मंजिल मिलती सबको नहीं,
जिनको मुयस्सर हुई, 
उनसे खुशनसीब कोई नहीं।

©Ruchi Jha
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