जंग भरी ज़िन्दगी न हमसफ़र न किसी हमनशीं से निकलेगा हमारे पांव का कांटा हमीं से निकलेगा मैं जानता था कि ज़हरीला सांप बन बन कर तिरा ख़ुलूस मेंरी आस्तीं से निकलेगा इसी गली में वो भूखा फ़क़ीर रहता था तलाश कीजे ख़ज़ाना यहीं से निकलेगा बुज़ुर्ग कहते थे इक वक़्त आएगा जिस दिन जहां पे डूबेगा सूरज वहीं से निकलेगा गुज़िश्ता साल के ज़ख़्मों हरे-भरे रहना जुलूस अब के बरस भी यहीं से निकलेगा राहत इन्दोरी राहत