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क्या बताऊं यूं छोटी सी उम्र में क्या क्या देखा है,

क्या बताऊं यूं छोटी सी उम्र में क्या क्या देखा है,
मैंने जन्नत में भगवानों को लड़ते देखा है,
था फरिश्ता मैं, मगर खुद को मोहताज कुछ पैसे का देखा है,
और हां बचपन से ही चिढ़ हो गई थी कुछ रिस्तों से,
जिन्हें फर्क सिर्फ़ हमारे टूटने से होता था,
वरना मैंने बहुतों को मुझे सभांलते देखा है,
हर बच्चें के नसीब में होता है नाना नानी का दुलार,
मैंने बस खुद को खुद के ही घर में कैद रखा है,
और तुम घूम आते होगें ये दुनियां सारी,
मैंने खुद को जन्नत में रह के भगवान का ख़्याल रखा है,
ऐसा नहीं है कि चाहत नहीं थी बाहरी दुनियां देखने की,
पर एक परिंदे को घर उजड़ने का हमेशा डर लगा रहा है,
और लोग कहते है कि मुझे कभी कभी सुनाई नहीं देता है,
क्या करू साहेब ऊंचे आवाज़ की तालीम ही बस बचपन से दी गई है,
खो जाता हूं कभी कभी मैं ख़ुद में ही,
लोगों को लगता है कि मुझे भी इश्क़ नाम की बीमारी हुई है,
और हां मैं बुरा नहीं कर पाता हूं किसी का,
क्या करूं गम कैसा होता हैं ये मैंने बचपन से ही देखा हैं,
अब अकेला हो गया खुद को यूहीं मारते मारते,
मैंने कल खुद को चुपके से रोते देखा हैं। क्या बताऊं यूं छोटी सी उम्र में क्या क्या देखा है,
मैंने जन्नत में भगवानों को लड़ते देखा है,
था फरिश्ता मैं, मगर खुद को मोहताज कुछ पैसे का देखा है,
और हां बचपन से ही चिढ़ हो गई थी कुछ रिस्तों से,
जिन्हें फर्क सिर्फ़ हमारे टूटने से होता था,
वरना मैंने बहुतों को मुझे सभांलते देखा है,
हर बच्चें के नसीब में होता है नाना नानी का दुलार,
मैंने बस खुद को खुद के ही घर में कैद रखा है,
क्या बताऊं यूं छोटी सी उम्र में क्या क्या देखा है,
मैंने जन्नत में भगवानों को लड़ते देखा है,
था फरिश्ता मैं, मगर खुद को मोहताज कुछ पैसे का देखा है,
और हां बचपन से ही चिढ़ हो गई थी कुछ रिस्तों से,
जिन्हें फर्क सिर्फ़ हमारे टूटने से होता था,
वरना मैंने बहुतों को मुझे सभांलते देखा है,
हर बच्चें के नसीब में होता है नाना नानी का दुलार,
मैंने बस खुद को खुद के ही घर में कैद रखा है,
और तुम घूम आते होगें ये दुनियां सारी,
मैंने खुद को जन्नत में रह के भगवान का ख़्याल रखा है,
ऐसा नहीं है कि चाहत नहीं थी बाहरी दुनियां देखने की,
पर एक परिंदे को घर उजड़ने का हमेशा डर लगा रहा है,
और लोग कहते है कि मुझे कभी कभी सुनाई नहीं देता है,
क्या करू साहेब ऊंचे आवाज़ की तालीम ही बस बचपन से दी गई है,
खो जाता हूं कभी कभी मैं ख़ुद में ही,
लोगों को लगता है कि मुझे भी इश्क़ नाम की बीमारी हुई है,
और हां मैं बुरा नहीं कर पाता हूं किसी का,
क्या करूं गम कैसा होता हैं ये मैंने बचपन से ही देखा हैं,
अब अकेला हो गया खुद को यूहीं मारते मारते,
मैंने कल खुद को चुपके से रोते देखा हैं। क्या बताऊं यूं छोटी सी उम्र में क्या क्या देखा है,
मैंने जन्नत में भगवानों को लड़ते देखा है,
था फरिश्ता मैं, मगर खुद को मोहताज कुछ पैसे का देखा है,
और हां बचपन से ही चिढ़ हो गई थी कुछ रिस्तों से,
जिन्हें फर्क सिर्फ़ हमारे टूटने से होता था,
वरना मैंने बहुतों को मुझे सभांलते देखा है,
हर बच्चें के नसीब में होता है नाना नानी का दुलार,
मैंने बस खुद को खुद के ही घर में कैद रखा है,
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