यह वैषम्य नियति का मुझपर, किस्मत बढ़ी धन्य उन कवि की, जिनके हित कविते ! बनतीं तुम झांकी नग्न अनावृत छवि की । दुखी विश्व से दूर जिन्हें लेकर आकाश कुसुम के वन में, खेल रहीं तुम अलस जलद सी किसी दिव्य नंदन-कानन में। भूषन-वासन जहाँ कुसुमों के, कहीं कुलिस का नाम नहीं है। दिन-भर सुमन-हार-गुम्फन को छोड़ दूसरा काम नहीं है। वही धन्य, जिनको लेकर तुम बसीं कल्पना के शतदल पर, जिनका स्वप्न तोड़ पाती है मिटटी नहीं चरण-ताल बजकर ! मेरी भी यह चाह विलासिनी ! सुन्दरता को शीश झुकाऊं, जिधर-जिधर मधुमयी बसी हो, उधर वसंतानिल बन जाऊं ! एक चाह कवि की यह देखूं, छिपकर कभी पहुँच मालिनी तट, किस प्रकार चलती मुनिबाला यौवनवती लिए कटी पर घाट part 2 🥰🥰😍 #allalone Arohi singh 🌿