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थोड़ा कुछ #2 कुछ टूटी फूटी जर्जर कविताओं, सतही स

थोड़ा कुछ #2

कुछ टूटी फूटी जर्जर कविताओं, 
सतही साहित्य के महीम तख़्त नुमा पुलिया पर
लड़खड़ाता डगमगाता हुआ
जहाँ विचार भी उन हाथो की तरह हैं 
जो केवल संतुलन देने हेतु हैं 
न जाने कहाँ बढ़े जा रहा हूँ   
कुछ ख़बर, कुछ होश नहीं
कोई है भी नही जो हमे कुछ बता पाए
क्योंकि हमारे सलीके के
नक़ली कलाकार कम ही हैं यहाँ
जो अपनी कल्पनाओं, रचनाओं में 
खोते तो नहीं पर सो अवश्य जाते हैं
जागते हैं तो आलकस की कलम से
चार सुस्ताए बोल काग़ज़ पर ख़रोंच देते हैं
जीवन ज़िम्मेदारियों से नज़र बचाते, 
छुपते, भगते शब्द हैं
या उनका अभाव।

©Abhishek 'रैबारि' Gairola थोड़ा कुछ #2

कुछ टूटी फूटी जर्जर कविताओं, 
सतही साहित्य के महीम तख़्त नुमा पुलिया पर
लड़खड़ाता डगमगाता हुआ
जहाँ विचार भी उन हाथो की तरह हैं 
जो केवल संतुलन देने हेतु हैं 
न जाने कहाँ बढ़े जा रहा हूँ
थोड़ा कुछ #2

कुछ टूटी फूटी जर्जर कविताओं, 
सतही साहित्य के महीम तख़्त नुमा पुलिया पर
लड़खड़ाता डगमगाता हुआ
जहाँ विचार भी उन हाथो की तरह हैं 
जो केवल संतुलन देने हेतु हैं 
न जाने कहाँ बढ़े जा रहा हूँ   
कुछ ख़बर, कुछ होश नहीं
कोई है भी नही जो हमे कुछ बता पाए
क्योंकि हमारे सलीके के
नक़ली कलाकार कम ही हैं यहाँ
जो अपनी कल्पनाओं, रचनाओं में 
खोते तो नहीं पर सो अवश्य जाते हैं
जागते हैं तो आलकस की कलम से
चार सुस्ताए बोल काग़ज़ पर ख़रोंच देते हैं
जीवन ज़िम्मेदारियों से नज़र बचाते, 
छुपते, भगते शब्द हैं
या उनका अभाव।

©Abhishek 'रैबारि' Gairola थोड़ा कुछ #2

कुछ टूटी फूटी जर्जर कविताओं, 
सतही साहित्य के महीम तख़्त नुमा पुलिया पर
लड़खड़ाता डगमगाता हुआ
जहाँ विचार भी उन हाथो की तरह हैं 
जो केवल संतुलन देने हेतु हैं 
न जाने कहाँ बढ़े जा रहा हूँ

थोड़ा कुछ 2 कुछ टूटी फूटी जर्जर कविताओं, सतही साहित्य के महीम तख़्त नुमा पुलिया पर लड़खड़ाता डगमगाता हुआ जहाँ विचार भी उन हाथो की तरह हैं जो केवल संतुलन देने हेतु हैं न जाने कहाँ बढ़े जा रहा हूँ