दर्पण देखा हमने दिन में जाने कितनी बार झांक कर ना

दर्पण देखा हमने दिन में जाने कितनी बार
झांक कर ना देखा हमने अपने मन में एक 
भी बार, लिए फिर रहा है, मन यहाँ  वहाँ
जाने कितने विकार
ऐसे ही चल रहा है, ये कलयुगी संसार

दर्पण देखा हमने  दिन में जाने कितनी बार
झांक कर न देखा हमने मन को एक भी बार

लोगों की बुराई करने मे अक्सर दिन अपना
कट जाता है, रात सुहानी कटती है अगले
दिन किसकी खिल्ली उडानी है, ऐसा हो
चला है चलन, सबकी यही परेसानी है
वो सुखी क्यों है, गम क्या हमारी हिस्से
ही आनी है, 

दर्पण देखा हमने दिन में जाने कितनी बार
झांक कर न देखा हमने मन मे एक भी बार

लोगों की तरक्की से अक्सर दिल हमारा
जल जाता है, उसके पास मुझ से ज्यादा
धन जाने कहाँ से आता है, अपना हिसाब न
किया हमने कभी,अंदाज़ उसकी कमाई
का लगाता है

दर्पण देखा हमने दिन मे जाने कितनी बार
झांक कर न देखा हमने अपने मन में एक भी
बार

अपना गुनाह हमें महसूस ना दिया कभी
दूसरों के अवगुण हम गिनाते है, गलत उन्हें
साबित करने कि खातिर इतने तर्क जाने
कहाँ से लाते है

©पथिक
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