हाथ से बीतते हुए लम्हों को कैसे रोकूँ, जो मुकद्दर-ए-ज़िन्दगी है उसे कैसे टोकूं, खुदा न करे कि ऐसा लम्हा आये, जो सारी ख्वाहिशों को संग ले जाए, इजाज़त बस खुदा से इतनी चाहिए, जितनी भी ज़िन्दगी है बस तेरी याद में बीत जाये। तेरे बिना भी क्या ज़िन्दगी, चलती तो हवाएं भी हैं, तेरे बिना क्या ज़िन्दगी, बदलते तो रुख भी हैं, फर्क बस इतना सा है, कि हवाओं और रुख का मोड़ होता है, मैं तो यूँ भी तेरे बिना बेवजह हूँ। राह चलते तो हजारों मुसाफिर मिलते हैं, ज़िन्दगी में तो कई मुसाफिर अपने बनते हैं, अपनों और गैरों में भी बहुत फर्क होता है, कुछ पास होके भी दूर हैं, कुछ दूर होके भी दिल के सबसे करीब हैं।