माधव! तुम थे गाँवों में। पीपल, वट के छावों में।। जब विद्यालय हम जाते। तुम्हीं थे बाल सखाओं में।। चन्द्रहास, शारद, मधुमंगल। श्रीदामा, मनसुख, मकरन्द।। भोज, वरूथप, मधुकण्ड। था कोई सुदामा, सदानन्द।। जैसे आपने चोरा माखन। हमने दूध, मलाई, गुड़।। झुण्ड बनाकर ग्वाला जाते। गौ-बकरी का दल ले उड़।। गेंद भी खेली, नदी नहाये। ग्वाईकुड़ी भी पूजी थी।। जंगल अपना परम् सखा था। कन्दमूल ही मेवा थी।। कितना था आनन्द न पूछो। झूला, जंगल, नदी पहाड़।। अपने घर के राजा थे, थी। अकड़, हुंकारें और दहाड़।। फिर जब बड़े हुए, तज आये। मातृभूमि, माँ, पिता, सखा।। ऐसे बिखरे कुरुक्षेत्र में। पड़े अकेले जगहा-जगहा।। तुम तो निकले धर्मयुद्ध को। इधर थी उदरपूर्ति चिन्ता।। तुम निकले थे धर्म स्थापना। हम निकले पूर्तिकामना।। माधव! गोकुल "गाँव" ही अच्छा, ना भाये मथुरा, द्वारिका, मति दो सबको, फिर लौटा दें, जगमग जीवन गाँवों का।। ©Tara Chandra Kandpal #पलायन