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पल्लव की डायरी गुमराह ना हो जाये चलन हमारे मन शुद्

पल्लव की डायरी
गुमराह ना हो जाये चलन हमारे
मन शुद्ध करने के केंद बने है
अनीतिया हावी ना ही जाये
नीतियों के प्रचलन के लिये
मंदिरों की प्रथा चली है
क्षीण हो रहे है बुद्धि और विवेक दिनों दिन
इसलिये इबादत की एक जगह बनी है
मगर हैवानियत का हरष देखो
मर्म धर्म का बहुत दूर छूट गया
एक दूसरे के धर्म स्थान हड़पने की
प्रतिस्पर्धा चली है
हो सकता है वो प्राचीन आराध्य हो तुम्हारे
तार तार अपने आराध्य की तपस्या
धूमिल करने की प्रथा चली है
हिंसा के बल पर ,अपनी लकीर बड़ी करने  की मची है
सेवा दया करुणा संवेदना बहुत पीछे
 धार्मिक और आस्था अब
सरकारी व्यवसाय के केंद बने है
                                              प्रवीण जैन पल्लव

©Praveen Jain "पल्लव"
  #GuzartiZindagi एक दूसरे के धर्म स्थान हड़पने की प्रतिस्पर्धा चली है
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