क्या ये धरती,क्या ये अम्बर हर जगह बने स्वार्थ के घर बिना मतलब कोई न बोलता, हर ओर बने चाटूकारों के शहर रिश्तों में आज लग गया जंग, रिश्तों में न रहा प्रेम पलभर क्या ये धरती,क्या ये अम्बर हर जगह बने स्वार्थ के घर टूट गये बरसो पुराने पत्थर जिन पे टिका था कभी सर अब रह गये,हर ओर खंडहर यादों के टूट गये पुराने घर क्या ये धरती,क्या ये अम्बर हर जगह बने स्वार्थ के घर न रहा अपनत्व का कोई दर, घुल गया पूरे ही कुंए में जहर बने चाहे पूरा जग स्वार्थी मगर, पर तुझे अंधेरे को देना टक्कर निष्काम कर्म ही बनाते है,निर्झर वो ही बनाते संसार को अतिसुंदर बाकी जिंदा होकर भी जीते मर-मर पर साखी तू जीना सदा ही मनभर क्या ये धरती,क्या ये अम्बर अच्छाई से मिटेगी झूठ की लहर तू साखी ईमानदारी से कर्म कर ख़ुदा की मौज मिलेगी हर प्रहर दिल से विजय स्वार्थ के घर