शोख़ फिज़ाओं की साज़िशों में, सुब्ह शबनमों की बारिशों में । मन का दर्पण जब भीगने लगे, अश्रुओं की धारा सूखने लगे । तो मन की कुंडी खटखटा लेना, फिर इक दफा मुझे बुला लेना । सहारा बनने लगे जब दीवार, तन्हाई लगने लगे जब लाचार । खुद को खुद की खबर ना हो, कांटा चुभने का असर ना हो । तो आंगन में दीया जला लेना, फिर इक दफा मुझे बुला लेना । बज्मों में होने लगे सरगोशियां, नज़्मों में दिखने लगे खामोशियां । जब जाने लगे 'अक़्ल-ए-कुल, जब बनने लगे चादर-ए-गुल । उस रोज़ का ताबीर सुना देना, फिर इक दफा मुझे बुला लेना । जब हिचकियों से वास्ता ना रहे, जब अपनों से कोई राब्ता ना रहे । जब चाँद का नूर जलाने लगे, जब अपना साया दूर जाने लगे । बीती बातों को फिर भुला देना, फिर इक दफा मुझे बुला लेना । ©Darshan Raj #a शोख़ फिज़ाओं की साज़िशों में, सुब्ह शबनमों की बारिशों में । मन का दर्पण जब भीगने लगे, अश्रुओं की धारा सूखने लगे । तो मन की कुंडी खटखटा लेना, फिर इक दफा मुझे बुला लेना ।