श्री मनोहर दास अग्रावत जो नदी मर्यादा छोड़ कर चलती है यह अपना ही तट खिसका कर गंदली होती है और तट के वृक्षों को गिराकर अपनी ही शोभा बिगाड़ती है। शोभा