"होली की एक अधूरी . . . सुहानी शाम" (कहानी अनुशीर्षक में) एक अधूरी . . . . सुहानी शाम कल होली है, यह एहसास मुझे आज भी पचास पचपन साल की उम्र में भी गुदगुदा जाता है। मेरे इस एहसास का होली से शायद कुछ लेना देना नहीं है, ऐसा नहीं है। पर यह तो उस सुहानी शाम का एहसास है। जिसे याद करके आज भी मेरे आस-पास हवाएँ चलने लगती है, सूखे पत्ते उड़ने लगते हैं , मधुर संगीत बजने लगता है और आसपास एक भीनी भीनी सी खुशबू बिखर जाती है। यह खुशबू जो उसकी है। जो उसके बदन से आती थी या यूँ कहिए कि आई थी। जो आज बरसों बीत जाने पर भी मन में बसी है । सच कहते हैं लोग