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कोरा काग़ज़ चिंतन (जीवन और मृत्यु) जीवन और मृत्यु

कोरा काग़ज़
चिंतन

(जीवन और मृत्यु)

जीवन और मृत्यु एक जीव के अस्तित्व के आरंभ से लेकर उसके अंत तक का एक सुनियोजित ढंग से चलने वाला एक चक्र है जो वैज्ञानिक दृष्टि से ही नहीं अपितु आध्यात्मिक एवं मानसिक दृष्टि से भी अपने आप मे एक रहस्यमयी प्रक्रिया है।

 जीवन और मृत्यु एक जीव के अस्तित्व के आरंभ से लेकर उसके अंत तक का एक सुनियोजित ढंग से चलने वाला एक चक्र है जो वैज्ञानिक दृष्टि से ही नहीं अपितु आध्यात्मिक एवं मानसिक दृष्टि से भी अपने आप मे एक रहस्यमयी प्रक्रिया है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य के जीवन का संबंध उसकी हृदय गति और उसके मस्तिष्क की संचालन से है जिसमें मनुष्य की हृदय गति रुकते ही उसकी मृत्यु हो जाती है जबकि उसका मस्तिष्क इस क्रिया के कुछ समय बाद तक कार्य करता हैं और इस क्रिया के पूर्ण रूप से समाप्त होते ही उस मनुष्य की पूर्ण मृत्यु भी हो जाती हैं

वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक एवं मानसिक दृष्टि से जीवन एवं मृत्यु को एक अलग ही प्रकार से परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार मनुष्य के शरीर एवं मस्तिष्क के निष्क्रिय हो जाने के बाद भी एक आत्मा के रूप मे उसका जीवन शेष रह जाता है, जिसमें उसकी अतृप्त इच्छाओं औऱ अधूरे रह गए कर्तव्यों का बोध उसे इस प्रकार प्रभावित करता है कि वह चाह कर भी अपनी मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पाता और इसी संसार में अपनी इच्छाओं एवं कर्तव्यों की पूर्ति हेतु मृत्यु के बाद भी आत्मा जैसे सूक्ष्म रूप में जीवित रहता है।

तो क्या जीवन की समाप्ति और मृत्यु का भय मात्र मानव मस्तिष्क की उपज हैं अथवा उसका जीवनकाल उसकी इच्छाओं की तीव्रता पर निर्भर करता है जो उसे उसकी मृत्यु के बाद भी इस संसार को छोड़ने नहीं देती?
कोरा काग़ज़
चिंतन

(जीवन और मृत्यु)

जीवन और मृत्यु एक जीव के अस्तित्व के आरंभ से लेकर उसके अंत तक का एक सुनियोजित ढंग से चलने वाला एक चक्र है जो वैज्ञानिक दृष्टि से ही नहीं अपितु आध्यात्मिक एवं मानसिक दृष्टि से भी अपने आप मे एक रहस्यमयी प्रक्रिया है।

 जीवन और मृत्यु एक जीव के अस्तित्व के आरंभ से लेकर उसके अंत तक का एक सुनियोजित ढंग से चलने वाला एक चक्र है जो वैज्ञानिक दृष्टि से ही नहीं अपितु आध्यात्मिक एवं मानसिक दृष्टि से भी अपने आप मे एक रहस्यमयी प्रक्रिया है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य के जीवन का संबंध उसकी हृदय गति और उसके मस्तिष्क की संचालन से है जिसमें मनुष्य की हृदय गति रुकते ही उसकी मृत्यु हो जाती है जबकि उसका मस्तिष्क इस क्रिया के कुछ समय बाद तक कार्य करता हैं और इस क्रिया के पूर्ण रूप से समाप्त होते ही उस मनुष्य की पूर्ण मृत्यु भी हो जाती हैं

वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिक एवं मानसिक दृष्टि से जीवन एवं मृत्यु को एक अलग ही प्रकार से परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार मनुष्य के शरीर एवं मस्तिष्क के निष्क्रिय हो जाने के बाद भी एक आत्मा के रूप मे उसका जीवन शेष रह जाता है, जिसमें उसकी अतृप्त इच्छाओं औऱ अधूरे रह गए कर्तव्यों का बोध उसे इस प्रकार प्रभावित करता है कि वह चाह कर भी अपनी मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पाता और इसी संसार में अपनी इच्छाओं एवं कर्तव्यों की पूर्ति हेतु मृत्यु के बाद भी आत्मा जैसे सूक्ष्म रूप में जीवित रहता है।

तो क्या जीवन की समाप्ति और मृत्यु का भय मात्र मानव मस्तिष्क की उपज हैं अथवा उसका जीवनकाल उसकी इच्छाओं की तीव्रता पर निर्भर करता है जो उसे उसकी मृत्यु के बाद भी इस संसार को छोड़ने नहीं देती?
akankshagupta7952

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