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।। ओ३म् ।। दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्त

।। ओ३म् ।।

दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्‌ परतः परः ॥

वह दिव्य अमूर्त 'पुरुष', वही बाह्य तथा आन्तर (सत्य) है एवं वह 'अज' है; वह प्राणों से परे (अप्राण) एवं मन से परे (अमन) है, वह शुभ्र ज्योतिर्मय एवं अक्षर से भी परे 'परमात्मतत्त्व' है।

He, the divine, the formless Spirit, even he is the outward and the inward and he the Unborn; he is beyond life, beyond mind, luminous, Supreme beyond the immutable.

( मुंडकोपनिषद १.३.२ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #अमूर्त
।। ओ३म् ।।

दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्‌ परतः परः ॥

वह दिव्य अमूर्त 'पुरुष', वही बाह्य तथा आन्तर (सत्य) है एवं वह 'अज' है; वह प्राणों से परे (अप्राण) एवं मन से परे (अमन) है, वह शुभ्र ज्योतिर्मय एवं अक्षर से भी परे 'परमात्मतत्त्व' है।

He, the divine, the formless Spirit, even he is the outward and the inward and he the Unborn; he is beyond life, beyond mind, luminous, Supreme beyond the immutable.

( मुंडकोपनिषद १.३.२ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #अमूर्त