रात भर फिर तेरी हसरतों की आग में फूंका था बदन रात भर खाल से जलन की टीस उठती रही सुबह बिस्तर पर पड़ी थी राख मेरी, शायद एक करवट किये ही फौत हो गई थी मैं जैसे लकड़ी कोई एकतरफा ही जल के बिखर जाती है झाड़ के चादर झिड़क दी थी फिर अपनी मिट्टी इस मिट्टी को कब कोई गंगा में बहाता है भला बस बुहार के देहरी के बाहर फेंक दी जाती है रोज़ तेरी हसरतों में जले जिस्म की, कोई जगह नहीं है मेरे घर में....#Sakhi.. ©Ankita Saxena