सफे पर चाँद उतर क्यो नही आता वो उधर से निकल जाता है,इधर क्यो नही आता मैं उनका जिस्म धोता शबनम से लबो से फूँककर कपड़े सुखाता जिगर को चूमकर मैं कुछ कहता तुम्हारा जिस्म इन बाहों में सिमट क्यो नही जाता तेरी राहो में गुलाबों को निचोड़ा करता कभी तन्हाई में बाहों को मरोड़ा करता तेरी पलकों को शराबों में भिगोया करता तुम्हारे वास्ते धागे में फूलों को पिरोया करता खड़ा रहता हूँ छत पर देखता रहता हूँ फ़लक़ सोचता हूँ कभी निकलेगा रोशनी लेकर मगर अफसोस मेरा चाँद शब में जल नही जाता बहुत दिन हो गए वो नूर नजऱ क्यो नही आता सफे पर चाँद उतर क्यो नही आता वो उधर से निकल जाता है इधर क्यो नही आता खूबसूरत नज़्म