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टमाटर के बहाने!(व्यंग्य) दो दिन पहले

टमाटर के बहाने!(व्यंग्य)

             दो दिन पहले दोपहर के भोजन में सलाद की प्लेट में टमाटर को देखकर कोफ्त हुई! हालांकि किसी राज्य में एक चुटुकुला यह भी सुना था कि किसी बड़े आदमी ने कहा था- "टमाटर" खाओ। उस राज्य में बेरोजगार नवयुवकों ने सरकारी बाबु बनने की ख्वाहिश जता दी थी! उस जवाब में उस  बड़े आदमी ने कहा था कि "कमाकर" खाओ। लोगों ने समझ लिया कि "टमाटर" खाओ!  सबको सरकार जंवाई बनाकर मलाई नहीं बांट सकती! बचपन में उन बड़े आदमी की "स्पीच थैरेपी" नहीं हो पाई। इसको उन्होंने फायदा का सौदा बना लिया और सारे सूबे की "थैरेपी करने लगे! उन्होंने कभी नहीं कहा था कि "टमाटर" खाओ। सस्ता मिल जाए तो खा लीजिए वैसे भी ज्यादा मात्रा में सेवन जोड़ों के दर्द और शरीर में अम्लीयता को बढ़ाता है। छोटा किसान तो टमाटर उगाकर भी खा नहीं सकता और तथाकथित किसानों के नाम पर अपनी दुकान चलाने वालों के गाल जरूर टमाटर जैसे सुर्ख हैं।

              वैसे आप टमाटर का सूप भी पी सकते हैं जैसे कि "पंचवर्षीय योजनाओं" में वे पीते हैं! या गोल-गोल टुकड़े काटकर ऊपर थोड़ा सेंधा नमक और पीसा हुआ जीरा बुरक कर कांटे-चम्मच से खा सकते हैं। वैसे मेरी बात करूं तो मैं ठहरा ठेठ गांव का ठेठ आदमी। कांटे-चम्मच से खाने का आदी नहीं, लोग तो कांटे-चम्मच भी खा जाते हैं और सफाई से निकाल देते हैं। कई बार सीवरेज लाइन साफ करते वक्त ये कांटे सफाईकर्मियों के हलक में पैवस्त होकर उनकी जान तक ले लेते हैं पर ये मुद्दे बहुत छोटे हैं जिस देश में पानी महंगा और मुफ़लिसों का खून सस्ता हो वहां "सीवरेज" की सफाई करने वालों की जान की क्या कीमत?

                   मैं हर बार कहता हूं कि जीवन के दुःख विषय पर आने ही नहीं देते। बात महंगे हुए टमाटर की है पर मिर्च की भी तो कर सकते हैं!  बचपन में देखा है कि इतनी हरी मिर्च होती थी कि खरीददार नहीं थे। पिताजी ने सरकारी नौकरी के हिसाब से छत की पट्टियां डलवाई थी! उन पट्टियों के बीच में लोहे का एक कड़ा झूलता था और हम भाई-बहन उस पर झूलते थे। बाद में यही कड़ा आत्महत्या का सुगम साधन बन गया! कर्ज में डूबे किसानों की इस कड़े ने मदद की। बिजली बाद में आई, पहले कड़ा आया फिर उस पर "ओरिएंट" कंपनी का कथई रंग का पंखा टंगा। उससे पहले उस कड़े से तराजू टंगा करता था और घी की तुलाई मण के भाव होती थी। तब क्या महंगाई नहीं थी! घी खाने की औकात रखने वालों का कोलेस्ट्रॉल बढ़ गया है वे संतुलन साधने के लिए हर सब्जी में टमाटर डालना पसंद करने लगे हैं। वर्तमान युग में टमाटर, प्याज, लहसुन और अदरक तो मध्यवर्गीय कुलीनता  के प्रतीक बन गए हैं।  हम तो मक्के-बाजरे की रोटी घी, दूध, छाछ, मखन और मिर्च से खाकर पांच किमी पैदल चलकर स्कूल चले जाते थे। पर वो कोई महान कार्य नहीं था बस मजबूरी थी।

                 प्याज-टमाटर पर इतनी हायतौबा क्यों? सोनाणा खेतलाजी के मेले में बर्फ पर रखे टमाटर के टुकड़े अच्छे लगते थे जिन पर लाल मिर्च, जीरा और नमक बिखरा होता था। घर में सूखी सब्जियां बनती थी और अच्छी लगती थी। अब हर रोज हरी सब्जियां खाकर भी न तो मन हरा होता है न हरा दिखता है! महिलाओं की आधी से ज्यादा आबादी को  "आयरन" की गोलियां खानी पड़ रही हैं।  मैंने ट्रेक्टर की ट्रॉली भर-भर टमाटर बाहर फेंके हैं। फेंकने में मैं भी उनसे कम नहीं हूं! वो अलग बात है कि उनकी नजर नहीं पड़ी! वे ले जाते और सड़े-गले टमाटरों से  "टोमेटो सॉस" बनाते, फिर मैं बड़े चाव से खा रहा होता। 
साल में एक बार टमाटर, सब्जियां और प्याज महंगे होते ही हैं! इस पर दुःख मनाने की बजाय खुशियां मनानी चाहिए। मन तो खट्टा ही है फिर भी और खट्टा करना हो तो टमाटर की जगह दही, इमली और आर्मचुर्ण का इस्तेमाल सब्जी बनाने में कीजिए। वैसे खटाई की जरूरत भी क्या? दुनियां का हर दूसरा आदमी खटाई बांट रहा है! देश के नीति-निर्धारकों को चुनने के और भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। टमाटर और प्याज पर हायतौबा मचाकर किसानों का अपमान मत कीजिए। कृषि कानूनों का मजमून तो हम समझ नहीं पाये! जहाँ सेव पैदा होती है वहां तरबूज बिकते हैं और जहाँ तरबूज पैदा होते हैं वहाँ सेव बिकती है। यही बाजारवाद है इसका लुत्फ लीजिए। जो खाली दो जून की रोटी ही कमा पाता है उसे टमाटर और सेव से कोई मतलब नहीं। बारिश के मौसम में पहाड़ सड़कों पर आ रहे हैं। राजधानी डूब रही है। कई डूबते हुओ को तिनके का सहारा मिल गया है! अच्छे ख़बरनवीस सैलाब से लड़कर आप तक जीवन की  जद्दोजहद की खबरें "लाईव" चला रहे हैं। सड़कों पर पुलिस के बेरिकेड्स खुद चलने लगे हैं! फिलहाल एक साथ फ्री बिजली-पानी का आनंद लीजिए पर बिजली के झटके से खुद को  बचायेगा नहीं तो टमाटर कौन खायेगा?
जय हिन्द

©Dinesh Kumar Meena
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