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रोज़ तुम्हारी बातों में, इक बात मुझे बस दिखती थी,

रोज़ तुम्हारी बातों में, इक बात मुझे बस दिखती थी,
रोज़ रात को अक़्सर मुझको,सपने में तुम दिखती थी।
और थाम कर हाथों को, तुम मुझको लेकर चलती थी,
दूर कहीं हम जाते थे, बातों में खो जाते थे,
बहुत बार तो मैंने ख़ुद को, तुझमें खोकर देखा है,
गहरे गहरे सन्नाटों में, ख़ुद को कह कर देखा है,
की एक रात को आना होगा, जब तुझसे खुल कर बोलूंगा,
और कलम को तेरे रस से, दूर कहीं मैं फेकुंगा।
बस कुछ बातों की ख़ातिर, मैंने लिखना तुम पर छोड़ दिया,
लोगों की बातों से डर कर, मैंने तुमसे मिलना छोड़ दिया।। रोज़ तुम्हारी बातों में,
इक बात मुझे बस दिखती थी,
रोज़ रात को अक़्सर मुझको,
सपने में तुम दिखती थी।
और थाम कर हाथों को, 
तुम मुझको लेकर चलती थी,
दूर कहीं हम जाते थे,
बातों में खो जाते थे,
रोज़ तुम्हारी बातों में, इक बात मुझे बस दिखती थी,
रोज़ रात को अक़्सर मुझको,सपने में तुम दिखती थी।
और थाम कर हाथों को, तुम मुझको लेकर चलती थी,
दूर कहीं हम जाते थे, बातों में खो जाते थे,
बहुत बार तो मैंने ख़ुद को, तुझमें खोकर देखा है,
गहरे गहरे सन्नाटों में, ख़ुद को कह कर देखा है,
की एक रात को आना होगा, जब तुझसे खुल कर बोलूंगा,
और कलम को तेरे रस से, दूर कहीं मैं फेकुंगा।
बस कुछ बातों की ख़ातिर, मैंने लिखना तुम पर छोड़ दिया,
लोगों की बातों से डर कर, मैंने तुमसे मिलना छोड़ दिया।। रोज़ तुम्हारी बातों में,
इक बात मुझे बस दिखती थी,
रोज़ रात को अक़्सर मुझको,
सपने में तुम दिखती थी।
और थाम कर हाथों को, 
तुम मुझको लेकर चलती थी,
दूर कहीं हम जाते थे,
बातों में खो जाते थे,