ज़िंदा हैं और ज़िंदा-दिली लगती भी नहीं, मरने को जी चाहता है और मरते भी नहीं। सूख चुका है शजर उम्मीदों का मगर न जाने क्यों, मुरझे हुए हैं पत्ते और शाखों से उतरते भी नहीं। मंज़िल नहीं हूं मैं उनकी ये बात बेपर्दा है, ठहरे हुए हैं दिल में और यहां से गुजरते भी नहीं। रात बे-रात फफक-फफक कर आंसूं बहाना, किसके लिए? नैन तो मेरे अब किसी झलक के लिए तरसते भी नहीं। मरने को जी चाहता है और मरते भी नहीं। ~Hilal #peace #Zinda_dil