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मेरा मन किसी चांद में भरमाया रहा यही घड़ी होती थी

मेरा मन किसी चांद में भरमाया रहा
यही घड़ी होती थी उनकी 
जब बातो की बारात निकलती थी
मैं राजा उस स्वप्न महल का 
और वो  रानी बनती थी
फोन उठाकर पलट दिया फिर
पहले तो घंटे बजती थीं
ऐसा सूनापन जीवन में
बात में बात निकलती थी
आज ये मन मायूस खड़ा है
मानो तुम ही जिज्ञासा थी
क्या होगा और काश ये होगा
आश पे आश मचलती थी
अब मानो सब सत्य ज्ञात हैं
बोली नही निकलती है
फोन पड़ा है कैफे बनकर
काम पड़े ही उठता है
वो भी अब नाराज बड़ा है
पहले चुम्मी मिलती थी
दिल तो दिल प्रोसेसर तोड़ा
निर्दय तूने कुछ न छोड़ा
पहले मेरी तनहाई तोड़ी
धीरे धीरे चुप्पी 
कहती थी कभी न विलग रहेंगे
कहां गई अब झुट्ठी

©दीपेश
  #विरह_वेदना