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ज़िन्दगी कुछ और हो सकती थी ग़र वक़्त ने हमें पहले मिल

ज़िन्दगी कुछ और हो सकती थी ग़र वक़्त ने हमें पहले मिलाया होता या फिर हमने थोड़ा और इंतज़ार किया होता और या फिर मैंने बगावत की होती!"
ये ख़्याल शायद हर दूसरे इंसान को आता होगा। अज़ीब हैं न हम सब, ज़िन्दगी जब मौका देती है, हाथ बढ़ाती है तो हिम्मत ही नहीं जुटा पाते कि आगे बढ़कर गले से लगा लें उसे और फिर उससे ही शिकायत करते हैं कि....
"मौत तो नाम से बदनाम है असल तकलीफ तो ज़िन्दगी दिया करती है।"
हम सिर्फ़ गलतियाँ करते नहीं, जानते-बुझते उन्हें ताउम्र ढोते भी हैं। कभी समाज के डर से तो कभी अपनों के प्यार और एहतराम की वजह से।
हम अपने लिए बेड़ियाँ खुद बनाते हैं और सौंप देते हैं खुद को दूसरों के हाथों में ताकि वो जब चाहे बेड़ियाँ खोलें और फिर बांध दें ❤🅱❤ #ज़िन्दगी कुछ और हो सकती थी ग़र वक़्त ने हमें पहले मिलाया होता या फिर हमने थोड़ा और इंतज़ार किया होता और या फिर मैंने बगावत की होती!"
ये ख़्याल शायद हर दूसरे इंसान को आता होगा। अज़ीब हैं न हम सब, ज़िन्दगी जब मौका देती है, हाथ बढ़ाती है तो हिम्मत ही नहीं जुटा पाते कि आगे बढ़कर गले से लगा लें उसे और फिर उससे ही शिकायत करते हैं कि....
"मौत तो नाम से बदनाम है असल तकलीफ तो ज़िन्दगी दिया करती है।"
हम सिर्फ़ गलतियाँ करते नहीं, जानते-बुझते उन्हें ताउम्र ढोते भी हैं। कभी समाज के डर से तो कभी अपनों के प्यार और एहतराम की वजह से।
हम अपने लिए बेड़ियाँ खुद बनाते हैं और सौंप देते हैं खुद को दूसरों के हाथों में ताकि वो जब चाहे बेड़ियाँ खोलें और फिर बांध दें।
ज़िन्दगी कुछ और हो सकती थी ग़र वक़्त ने हमें पहले मिलाया होता या फिर हमने थोड़ा और इंतज़ार किया होता और या फिर मैंने बगावत की होती!"
ये ख़्याल शायद हर दूसरे इंसान को आता होगा। अज़ीब हैं न हम सब, ज़िन्दगी जब मौका देती है, हाथ बढ़ाती है तो हिम्मत ही नहीं जुटा पाते कि आगे बढ़कर गले से लगा लें उसे और फिर उससे ही शिकायत करते हैं कि....
"मौत तो नाम से बदनाम है असल तकलीफ तो ज़िन्दगी दिया करती है।"
हम सिर्फ़ गलतियाँ करते नहीं, जानते-बुझते उन्हें ताउम्र ढोते भी हैं। कभी समाज के डर से तो कभी अपनों के प्यार और एहतराम की वजह से।
हम अपने लिए बेड़ियाँ खुद बनाते हैं और सौंप देते हैं खुद को दूसरों के हाथों में ताकि वो जब चाहे बेड़ियाँ खोलें और फिर बांध दें ❤🅱❤ #ज़िन्दगी कुछ और हो सकती थी ग़र वक़्त ने हमें पहले मिलाया होता या फिर हमने थोड़ा और इंतज़ार किया होता और या फिर मैंने बगावत की होती!"
ये ख़्याल शायद हर दूसरे इंसान को आता होगा। अज़ीब हैं न हम सब, ज़िन्दगी जब मौका देती है, हाथ बढ़ाती है तो हिम्मत ही नहीं जुटा पाते कि आगे बढ़कर गले से लगा लें उसे और फिर उससे ही शिकायत करते हैं कि....
"मौत तो नाम से बदनाम है असल तकलीफ तो ज़िन्दगी दिया करती है।"
हम सिर्फ़ गलतियाँ करते नहीं, जानते-बुझते उन्हें ताउम्र ढोते भी हैं। कभी समाज के डर से तो कभी अपनों के प्यार और एहतराम की वजह से।
हम अपने लिए बेड़ियाँ खुद बनाते हैं और सौंप देते हैं खुद को दूसरों के हाथों में ताकि वो जब चाहे बेड़ियाँ खोलें और फिर बांध दें।
bharatsen1396

Bharat Sen

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