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"तरंग रंग सर्वदा, नमामि देवी नर्मदा" कृप्या अनुश

"तरंग रंग सर्वदा, नमामि देवी नर्मदा"


कृप्या अनुशीर्षक पढ़े .. मेरी माँ का बड़ी ही फुर्सत से सजाया गया पूजाघर और उस में हमेशा ही दोनों किनारों पर लाल चूनर से सजी काँच की दो शीशियाँ। इन शीशियों में साधारण जल नहीं भरा होता है। एक शीशी में माँ गंगा का जल और दूसरी में नर्मदा मैया विराजित। घर के किसी भी शुभ कार्य में या किसी अशुभ कार्य के पश्चात गृह शुद्धि के लिए ये पवित्र जल सहेज कर रखे जाते है आज भी पूजाघर में। यह तो हुआ माँ नर्मदा के प्रति आस्था का भाव। आस्था ही नहीं अपितु बाल्यावस्था की अनेकों स्मृतियाँ जोड़ती हैं नर्मदा नदी को मुझसे। संस्कारधानी जबलपुर और होशंगाबाद में नर्मदा के तट पर बनाये गए मनोहारी घाट किसी प्रवासी के मन में भी सम्मोहन जगा सकते हैं। भेड़ाघाट जलप्रपात को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। मेरे गृह नगर से कुछ 4-5 किलोमीटर दूरी पर स्थित नर्मदा घाट जहां हर अमावस पूरनमासी जाना बाकी परिवारजनों के लिए पूजा पाठ हुआ करता था और बच्चों के लिए पिकनिक। ब्रह्म मुहूर्त में माँ नर्मदा के उथले घाट पर शांत शीतल जल सूर्य की पहली किरण पड़ते ही स्वर्ण की परत सा चमकता; साथ ही साथ सूर्य और चंद्र दोनों की एक साथ अठखेलियाँ मानो सूर्य जल पर अपनी सत्ता जमा रहा हो और चंद्रमा मोह ही नहीं छोड़ पा रहा हो।घाट के किसी कोने पर घुटने घुटने जल में खड़े हो एक वस्त्रधारी कोई वृद्धजन अंजुली में जल लेकर सूर्य को अर्पित करते हुई दिन का स्वागत करते। किनारों से बहकर आते आटे के छोटे छोटे दिए शांत जल पर हिचकोले खाते। यह सारे दृश्य स्मृति पटल में अंकित हैं आज भी जिस के तिस। सबसे सुंदर बात यह हुआ करती थी कि मैंने बचपन में माँ नर्मदा के किनारों पर प्रदूषण नहीं पाया कभी। दुर्भाग्यवश आधुनिकता की दौड़ में हम मूलभूत उत्तरदायित्वों को भूलने की गलती कर बैठे। आज भी जब अपने शहर जाना होता है एक सुबह उस घाट पर जाना तय होता है। पापा ने भी रिटायरमेंट के बाद अपने साथियों के साथ फुर्सत के समय में माँ नर्मदा के घाटों को स्वच्छ करने की मुहिम चलाई है। समय समय पर वृक्षारोपन भी किये जाते है। इस तरह नर्मदा नदी मेरे हृदय में बसती हैं।

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"तरंग रंग सर्वदा, नमामि देवी नर्मदा"


कृप्या अनुशीर्षक पढ़े .. मेरी माँ का बड़ी ही फुर्सत से सजाया गया पूजाघर और उस में हमेशा ही दोनों किनारों पर लाल चूनर से सजी काँच की दो शीशियाँ। इन शीशियों में साधारण जल नहीं भरा होता है। एक शीशी में माँ गंगा का जल और दूसरी में नर्मदा मैया विराजित। घर के किसी भी शुभ कार्य में या किसी अशुभ कार्य के पश्चात गृह शुद्धि के लिए ये पवित्र जल सहेज कर रखे जाते है आज भी पूजाघर में। यह तो हुआ माँ नर्मदा के प्रति आस्था का भाव। आस्था ही नहीं अपितु बाल्यावस्था की अनेकों स्मृतियाँ जोड़ती हैं नर्मदा नदी को मुझसे। संस्कारधानी जबलपुर और होशंगाबाद में नर्मदा के तट पर बनाये गए मनोहारी घाट किसी प्रवासी के मन में भी सम्मोहन जगा सकते हैं। भेड़ाघाट जलप्रपात को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। मेरे गृह नगर से कुछ 4-5 किलोमीटर दूरी पर स्थित नर्मदा घाट जहां हर अमावस पूरनमासी जाना बाकी परिवारजनों के लिए पूजा पाठ हुआ करता था और बच्चों के लिए पिकनिक। ब्रह्म मुहूर्त में माँ नर्मदा के उथले घाट पर शांत शीतल जल सूर्य की पहली किरण पड़ते ही स्वर्ण की परत सा चमकता; साथ ही साथ सूर्य और चंद्र दोनों की एक साथ अठखेलियाँ मानो सूर्य जल पर अपनी सत्ता जमा रहा हो और चंद्रमा मोह ही नहीं छोड़ पा रहा हो।घाट के किसी कोने पर घुटने घुटने जल में खड़े हो एक वस्त्रधारी कोई वृद्धजन अंजुली में जल लेकर सूर्य को अर्पित करते हुई दिन का स्वागत करते। किनारों से बहकर आते आटे के छोटे छोटे दिए शांत जल पर हिचकोले खाते। यह सारे दृश्य स्मृति पटल में अंकित हैं आज भी जिस के तिस। सबसे सुंदर बात यह हुआ करती थी कि मैंने बचपन में माँ नर्मदा के किनारों पर प्रदूषण नहीं पाया कभी। दुर्भाग्यवश आधुनिकता की दौड़ में हम मूलभूत उत्तरदायित्वों को भूलने की गलती कर बैठे। आज भी जब अपने शहर जाना होता है एक सुबह उस घाट पर जाना तय होता है। पापा ने भी रिटायरमेंट के बाद अपने साथियों के साथ फुर्सत के समय में माँ नर्मदा के घाटों को स्वच्छ करने की मुहिम चलाई है। समय समय पर वृक्षारोपन भी किये जाते है। इस तरह नर्मदा नदी मेरे हृदय में बसती हैं।

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