वो सेहरा के सर्द रात और तेरे बदन के तपिश कहाँ भूल पाऊँगा मैं। तेरे बगैर तेरे ही शहर भला क्या करने आउंगा मैं ...। वो कपास में लिपटे नर्म ख्वाब और वो सुर्ख फजर अब कहाँ देख पाऊँगा मैं।। तेरे बगैर तेरे ही शहर भला क्या करने आउंगा मैं मेरे आने की बेकरारी किसे होगी अब ?? उस मोड़ पर, उन कूंचों तक पहुँचे या नही कौन पूछेगा मुझे ।। तेरे न होनें पर उन तंग गलियों मेरे भटक जाउंगा मैं ।। तेरे बगैर तेरे ही शहर भला क्या करने आउंगा मैं ।। जब तक छू न लूँ दूरियों का एहसास कराना ।। लोगों को देख वो झूठा सा मुस्कुराना, पर आग़ोश में आने की देरी का अंदाज़-ए- कर्ब अब किसका लगाउँगा मैं ... तेरे बगैर तेरे ही शहर भला क्या करने आउंगा मैं।।। इक़रार सात जन्म का कर ऐ हम-नशीन आज खुल्द में है तू ।। तुझ इस धोखे की सजा देने का इंतज़ार है मुझे ।। अक्सर उठाया तुझे नींद से मैनें ।। पर क़ब्र की स्याह नींद से कहाँ जगा पाऊँगा मैं।। तू ही बता तेरे बगैर तेरे ही शहर भला क्या करने आऊंगा मैं ।।। ©Raj Singh Rana #Sehra