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"नारी अस्मितायें एवं सामाजिक सुरक्षा"

"नारी अस्मितायें एवं सामाजिक सुरक्षा"              
                  एक वीभत्स अपराध के साये में आज हमारा शहर भी जीने को अग्रसर हो रहा है।अशिक्षा एवं बेरोजगारी में उर्ध्वगामी सर्क तो था ही परन्तु बीते दिवस पाश्विकता में भी नवीन कीर्तिमानों की होड़ में मदान्ध होता दिख रहा है। उत्तर प्रदेश की निठल्ली बौराई निगाहों में मानों कामुकता का दावानल अब नोएडा, गाजियाबाद, मेरठ, इलाहाबाद से सीमस्थ क्षेत्र बलरामपुर तक मनुष्यता के विध्वंस को आमन्त्रित कर रहा है। प्रशासन भी शक्ति स्वतन्त्रता के भाँग में कानून व्यवस्था की धज्जियों को धूल फँका रहा है। निवर्तमान सरकारें भी ऐसे निकायों को वारदात अन्वेषण करने को नियुक्त कर रही हैं, जिनकी जवाबदेहिता कुलदीप सेंगर एवं चिन्मयानंद की परिवारहन्तात्मक बलात्कारिक मामलों में अपनी निष्पक्ष जांच की प्रासंगिकताओं को लेकर निकायिक निष्ठाओं को प्रश्नांकित करती रही है। हैवानियत का  नंगानृत्य सामान्य घटनाओं के रूप में अपनी उपस्थिति को पुख्ता करता जा रहा है। राजनीतिक नारीवादी उद्वेगनाओं में सियासी रोटियों को सेंकना और उन पर प्रशासन के स्याह रवैयों ने भौतिक स्त्रीत्व को निशाचरी खिलौना बनाकर रख दिया है, जिस भी मनचले के अंतरावेगों में हवस का ज्वार हिलोर लेता है वह तत्काल निकटदर्शी स्त्रांगों में इच्छापूर्ति का अद्भुत माध्यम ढूँढ लेता है। जहाँ उसके लिये मान-मर्यादा, लोक-लज्जा, रिश्ते-नाते जैसे विषय मात्र गौण एवं छाद्मिक आवरणी रह जाते हैं। हैदराबाद बलात्कार मामले पर की गई प्रशासनिक कार्यवाही को लोगों ने ऐसा सर आँखों पर बिठाया कि वह आज धड़ल्ले से आरोपितों, पीड़ितों एवं सक्ष्यों तक का सुगमता से भक्षण करने में सिद्धहस्त हो चुका है। न तो सरकारें महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था को मुहैया कराने में समर्थ हैं, और न प्रशासकीय सुरक्षात्मक कार्ययोजनायें।


                अपराधिक संलिप्तता वाले दुरानुभावों के छवियों को समाज के बीच चस्पा करने की सरकारी नवनीति "आपरेशन दुराचारी" एक अनियोजित कार्ययोजना लगती है। नाबालिग एवं बालिग के आधार पर दण्ड विधानों में अपनाये जाने वाला अन्तर भी कोई  संगत न्यायिक विधा नहीं मालूम होती। ऐसे में जिस उचित नीति की आवश्यकता है उसके सृजन में नीति नियामक तंत्र हाशिए पर मात्र मूकदर्शक नजर आता है। अव्यवहार्य अनैतिकताओं को कभी जातिवाद का जामा पहना दिया जाता है तो कभी सम्प्रदायवाद का। राजनीति गलियारों में सिवाय सत्तात्मक आकांक्षाओं के यथार्थवादी संवेदनाओं को हमेशा मिथ्या प्रलाप के घड़ियाली आँसुओं के अतिरिक्त कहीं और संसाधित किया ही नहीं जाता है। लैंगिक अपराधों के विषय में सामाजिक विडम्बना तब और बढ़ जाती है, जब न्यायिक मित्रों के द्वारा एकांगी निष्कर्षों को बल दिया जाने लगता है। जनसंचारिकी भी शासन राजनीति के गलियारों में विशेष दलगत हितैषी उद्देश्यों की चाटुकारिता में न्यायिक निर्णयात्मक भूमिकाओं का स्वतः ही पैरोकार बन जाता है।


                    उजड़ी अस्मिताओं को न्याय के स्थान पर अखबार होने का दुर्भाग्य वरण करना पड़ जाता है, जो उसकी परिवार सह तार होती सामाजिक प्रस्थितियों के जले पर नमक छिड़कने से कम नहीं होता। परन्तु बहुदलवादी लोकतन्त्र में सम्पूर्ण विपक्ष और ऊपर से प्रत्येक की विशिष्ट आई टी सेल की कार्यकारिणी, जो गिद्धों से भी निकृष्ट राजनीति की ध्वजवाहक है, इनके लिये लुटती अस्मितायें सत्ता प्राप्ति को एक उत्कृष्ट माध्यम के अतिरिक्त कुछ नहीं होती। सरकारी महकमों में भी निष्पक्ष त्वरित एवं न्यायिक कार्यवाही असंख्य अनुत्तरित प्रश्नों के साये में अधर की डगर ही बनकर रह जाती है। सामाजिक मनोवृत्तियों में परिवर्तन लाने की और नियामक ईकाईयों में कार्ययोजना का विशेष अभाव दिखता है, जबकि दीर्घकालिक सभ्यता विकास को यह अहम् स्थान रखता है। रिक्त हस्त एवं रिक्त मस्तिष्क हमेशा अव्यवहार्य क्रियाओं की अभिव्यक्ति करते हैं, जो अपनी क्षमताओं से सामाजिकता के मानवीय पहलुओं को यदा-कदा हाशिए पर पहुँचा ही देते हैं। वैसे शिक्षा एवं रोजगारों की पर्याप्त उपलब्धता ऐसे जघन्य अपराधों में मंदन ला तो सकती हैं, परन्तु एन सी आर बी के नवीन आँकड़ों की माने तो महिला अपराधों के मामलों में दिल्ली, जयपुर, लखनऊ एवं केरल आदि के सन्दर्भों में ऐसे नियोजन कोई मील के पत्थर नहीं सिद्ध हो सके हैं। अतः इससे भी इतर अन्यान्य सुरक्षा संरक्षण एवं जागरण कार्यक्रमों पर व्यापक पहल को भूतल तक  संचालित किये जाने की जरूरत है। त्वरित न्यायिक मंचों की पंचायत स्तर तक पहुँच को आम जन के लिए सुगमतापूर्वक सुनिश्चित किये जाने की अनिवार्य आवश्यकता है। सर्वांगिक अपराधों को जाति व सम्प्रदाय से केवल अपराधिक दृष्टिकोंण से जाने जाने की आवश्यकता है।
"नारी अस्मितायें एवं सामाजिक सुरक्षा"              
                  एक वीभत्स अपराध के साये में आज हमारा शहर भी जीने को अग्रसर हो रहा है।अशिक्षा एवं बेरोजगारी में उर्ध्वगामी सर्क तो था ही परन्तु बीते दिवस पाश्विकता में भी नवीन कीर्तिमानों की होड़ में मदान्ध होता दिख रहा है। उत्तर प्रदेश की निठल्ली बौराई निगाहों में मानों कामुकता का दावानल अब नोएडा, गाजियाबाद, मेरठ, इलाहाबाद से सीमस्थ क्षेत्र बलरामपुर तक मनुष्यता के विध्वंस को आमन्त्रित कर रहा है। प्रशासन भी शक्ति स्वतन्त्रता के भाँग में कानून व्यवस्था की धज्जियों को धूल फँका रहा है। निवर्तमान सरकारें भी ऐसे निकायों को वारदात अन्वेषण करने को नियुक्त कर रही हैं, जिनकी जवाबदेहिता कुलदीप सेंगर एवं चिन्मयानंद की परिवारहन्तात्मक बलात्कारिक मामलों में अपनी निष्पक्ष जांच की प्रासंगिकताओं को लेकर निकायिक निष्ठाओं को प्रश्नांकित करती रही है। हैवानियत का  नंगानृत्य सामान्य घटनाओं के रूप में अपनी उपस्थिति को पुख्ता करता जा रहा है। राजनीतिक नारीवादी उद्वेगनाओं में सियासी रोटियों को सेंकना और उन पर प्रशासन के स्याह रवैयों ने भौतिक स्त्रीत्व को निशाचरी खिलौना बनाकर रख दिया है, जिस भी मनचले के अंतरावेगों में हवस का ज्वार हिलोर लेता है वह तत्काल निकटदर्शी स्त्रांगों में इच्छापूर्ति का अद्भुत माध्यम ढूँढ लेता है। जहाँ उसके लिये मान-मर्यादा, लोक-लज्जा, रिश्ते-नाते जैसे विषय मात्र गौण एवं छाद्मिक आवरणी रह जाते हैं। हैदराबाद बलात्कार मामले पर की गई प्रशासनिक कार्यवाही को लोगों ने ऐसा सर आँखों पर बिठाया कि वह आज धड़ल्ले से आरोपितों, पीड़ितों एवं सक्ष्यों तक का सुगमता से भक्षण करने में सिद्धहस्त हो चुका है। न तो सरकारें महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था को मुहैया कराने में समर्थ हैं, और न प्रशासकीय सुरक्षात्मक कार्ययोजनायें।


                अपराधिक संलिप्तता वाले दुरानुभावों के छवियों को समाज के बीच चस्पा करने की सरकारी नवनीति "आपरेशन दुराचारी" एक अनियोजित कार्ययोजना लगती है। नाबालिग एवं बालिग के आधार पर दण्ड विधानों में अपनाये जाने वाला अन्तर भी कोई  संगत न्यायिक विधा नहीं मालूम होती। ऐसे में जिस उचित नीति की आवश्यकता है उसके सृजन में नीति नियामक तंत्र हाशिए पर मात्र मूकदर्शक नजर आता है। अव्यवहार्य अनैतिकताओं को कभी जातिवाद का जामा पहना दिया जाता है तो कभी सम्प्रदायवाद का। राजनीति गलियारों में सिवाय सत्तात्मक आकांक्षाओं के यथार्थवादी संवेदनाओं को हमेशा मिथ्या प्रलाप के घड़ियाली आँसुओं के अतिरिक्त कहीं और संसाधित किया ही नहीं जाता है। लैंगिक अपराधों के विषय में सामाजिक विडम्बना तब और बढ़ जाती है, जब न्यायिक मित्रों के द्वारा एकांगी निष्कर्षों को बल दिया जाने लगता है। जनसंचारिकी भी शासन राजनीति के गलियारों में विशेष दलगत हितैषी उद्देश्यों की चाटुकारिता में न्यायिक निर्णयात्मक भूमिकाओं का स्वतः ही पैरोकार बन जाता है।


                    उजड़ी अस्मिताओं को न्याय के स्थान पर अखबार होने का दुर्भाग्य वरण करना पड़ जाता है, जो उसकी परिवार सह तार होती सामाजिक प्रस्थितियों के जले पर नमक छिड़कने से कम नहीं होता। परन्तु बहुदलवादी लोकतन्त्र में सम्पूर्ण विपक्ष और ऊपर से प्रत्येक की विशिष्ट आई टी सेल की कार्यकारिणी, जो गिद्धों से भी निकृष्ट राजनीति की ध्वजवाहक है, इनके लिये लुटती अस्मितायें सत्ता प्राप्ति को एक उत्कृष्ट माध्यम के अतिरिक्त कुछ नहीं होती। सरकारी महकमों में भी निष्पक्ष त्वरित एवं न्यायिक कार्यवाही असंख्य अनुत्तरित प्रश्नों के साये में अधर की डगर ही बनकर रह जाती है। सामाजिक मनोवृत्तियों में परिवर्तन लाने की और नियामक ईकाईयों में कार्ययोजना का विशेष अभाव दिखता है, जबकि दीर्घकालिक सभ्यता विकास को यह अहम् स्थान रखता है। रिक्त हस्त एवं रिक्त मस्तिष्क हमेशा अव्यवहार्य क्रियाओं की अभिव्यक्ति करते हैं, जो अपनी क्षमताओं से सामाजिकता के मानवीय पहलुओं को यदा-कदा हाशिए पर पहुँचा ही देते हैं। वैसे शिक्षा एवं रोजगारों की पर्याप्त उपलब्धता ऐसे जघन्य अपराधों में मंदन ला तो सकती हैं, परन्तु एन सी आर बी के नवीन आँकड़ों की माने तो महिला अपराधों के मामलों में दिल्ली, जयपुर, लखनऊ एवं केरल आदि के सन्दर्भों में ऐसे नियोजन कोई मील के पत्थर नहीं सिद्ध हो सके हैं। अतः इससे भी इतर अन्यान्य सुरक्षा संरक्षण एवं जागरण कार्यक्रमों पर व्यापक पहल को भूतल तक  संचालित किये जाने की जरूरत है। त्वरित न्यायिक मंचों की पंचायत स्तर तक पहुँच को आम जन के लिए सुगमतापूर्वक सुनिश्चित किये जाने की अनिवार्य आवश्यकता है। सर्वांगिक अपराधों को जाति व सम्प्रदाय से केवल अपराधिक दृष्टिकोंण से जाने जाने की आवश्यकता है।