ज़रा करो पहल तुम भी एक दफा जरा मैं भी तुम्हे समझ सकू कुछ खताएं तुम्हारी माफ करूँ कुछ अपने भी गुनाह कबूल सकू आओ न चलो मिलकर के फिर हम करते है एक नया सफर शुरू छिपाए है जो इस मुस्कान के पीछे उस चेहरे को मैं बेनकाब करूँ गर नही है तू हक़ीक़त में मेरी तो मैं अपनी हयात को सराब करूँ है जो भी फिर तेरे कर्ज मुझपे उनका फिर मैं हिसाब करूँ उतर जाऊं फिर किसी बोतल में या तेरी कैद में आज़ाद रहूँ बता दे फकत तेरी ख्वाहिश है क्या मैं जियूँ मरु या तेरा इंतज़ार करूँ ।। "बता तेरी ख्वाहिश है क्या" . . कुछ दोस्तों से वैसे मरासिम नही रहे कुछ दुश्मनो से वैसी अदावत नही रही हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते है लोग रो रो के बात कहने की आदत नही रही ।।