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ये कैसा अनसुलझा हुआ घाव है जिसमें न बहाव है न ठहरा

ये कैसा अनसुलझा हुआ घाव है
जिसमें न बहाव है न ठहराव है
कहां से शुरु करूं कहां से खतम
इस बात का न शिर है न पांव है
ये कैसा अनसुलझा......
जी तो लूं तन्हाई संग पर यादें मेरी
ऐसे घेरी जैसे कारी बदरिया घेरी
बड़ा अदभुत दर्दे गम से लगाव है
ये कैसा अनसुलझा......
बड़ी जद्दोजहद में फसी है जिन्दगी
अब तो रूठ सी गई है जैसे बंदगी
"सूर्य" को देता कहां कोई छांव है
ये कैसा अनसुलझा......

©R K Mishra " सूर्य "
  #घाव