परेशान एहले मुहब्बत को देखा, नज़र आये दिल भी बहुत ग़म के मारे, मुहब्बत की राहों से नज़रें बचा कर, मैं गुज़रा हमेशा किनारे किनारे.. रसीली निगाहें रंगीली अदाएं, दिल-ए-मुब्तिला को कहाँ तक बचायें, नसीम-ए-सहर ने इधर साज़ छेड़ा, उधर माह-ए-पैकर ने गेसू सँवारे.. ख़ुदा के लियें ज़िक़्र उसका ना छेड़ो, मुझे आज फिर याद आने लगा है, मुहब्बत से लबरेज़ रंगीन रातें, गुज़री हैं किस महजबीं के सहारे.. गुज़िश्ता ज़माने कि याद आ रही है, मिरे ग़म-ज़दा दिल को तड़पा रही है, छलक आये आंखों में अब अश्क़ बन कर, तुम्हारी मुहब्बत के रंगीं नज़ारे.. ये क्या बात है राज़दार-ए-मुहब्बत, किसे ये नसीम-ए-सहर छेड़ती है, ख़ुदा जाने “अम्बर” किसे झांकते है, ज़मी पर तेरी ओर से चाँद तारे..!! ©️ज़ोहेब। (अम्बर अमरोहवी) बहरे-मुतकारिब मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम 122 122 122 122 122 122 122 122