पिता जो दौड़ा करते कभी आज थम थम कर चलने लगे जो चट्टानों से खड़े कभी आज बेबस दिखने लगे हांथों में जिनकी पूरी लकीरें आज लकीरें बिगड़ने लगी जो आंखे सपने बुना करती कभी आज दूर देखने की करती कोशिश पर देख केवल नज़दीक ही पाती जो डटकर मुश्किलों का सामना करते कभी आज उनकी कमर झुकने सी लगी है निकल चले जिंदगी की उस दौड़ में जहां मजबूरियां बनने लगी मुसीबतें सारी मुश्किलों को ख़ुद में समा कर अपनों के बीच केवल खुशियां देकर जीवन के इस चक्र को उन्होंने बनाया अपना साथी चाहत सिर्फ इतनी उनकी बाल बांका न कर पाए कोई खुशहाल रहे मेरा बगिया डाली डाली फले फूले पत्ते पत्ते खिल जाए सारे धन्यवाद! आयुषी मुंगेर,बिहार #river #पिता #Ayushi#Munger