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हे त्रिदेव, त्राहिमाम आग उगले है आकाश, हवाएँ नसि

हे त्रिदेव, त्राहिमाम 

आग उगले है आकाश, हवाएँ नसिकाएँ जलातीं हैं,
पीड़ा में है समस्त संसार, माता पृथ्वी भी घबरातीं हैं,

पेड़ों से प्राण सोखता ये तापमान भी बढ़ता जाता है,
पशु-पंछी व जन-जीवन का संतुलन बिगड़ता जाता है,

जलहीन हुए हैं तालाब, कुओं में भी अमृत की कमी है,
शुष्क हुए हैं अधर सभी के, केवल नयनों में शेष नमी है,

मेघों की बाट जोहते कृषक जन नितप्रति अश्रु बहाते हैं,
फसलों को बिन वर्षा जलते देख स्वयं भी जलते जाते हैं,

दिनों की राहत छीन गई, रात्रि में भी निंद्रा निषेध हो जैसे,
सूर्य का ये ग्रीष्मव्यूह हम भुवासियों के लिए अभेध हो जैसे,

हाथ थकते, पंखा झलते तत्पश्चात भी स्वेद से बदन तर है,
लू चल रही है बाहर, घर के अंदर भी व्यापत उसका डर है,

कोयल की कूक गुम है बागों से, पपीहरे भी तो लुप्त हैं कहीं,
हलचल स्वभाव अपना छोड़कर, ऋतुएँ भी मानो सुप्त हैं कहीं,

सूर्यदेव के बढ़ते जाते ताप से त्रस्त हुआ अब भूमंडल सारा है,
इंद्रदेव के आगे भी कर जोड़ते, प्रार्थना करते अंतर्मन ये हारा है,

चढ़ते हर पहर के साथ, व्याकुलता भी बढ़ती जाती है हर क्षण में,
आस लगाए बैठे हैं हम जन सब कि मिले आस कब किस कण में,

हर व्यथित मन की व्यथा सारी हम आपको भेंट में चढ़ाने आए हैं,
हे त्रिदेव, त्राहिमाम! हम अनुयायी आपके, आपकी शरण में आए हैं।

©Saket Ranjan Shukla हे त्रिदेव, त्राहिमाम..!
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✍🏻Saket Ranjan Shukla
All rights reserved©
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हे त्रिदेव, त्राहिमाम 

आग उगले है आकाश, हवाएँ नसिकाएँ जलातीं हैं,
पीड़ा में है समस्त संसार, माता पृथ्वी भी घबरातीं हैं,

पेड़ों से प्राण सोखता ये तापमान भी बढ़ता जाता है,
पशु-पंछी व जन-जीवन का संतुलन बिगड़ता जाता है,

जलहीन हुए हैं तालाब, कुओं में भी अमृत की कमी है,
शुष्क हुए हैं अधर सभी के, केवल नयनों में शेष नमी है,

मेघों की बाट जोहते कृषक जन नितप्रति अश्रु बहाते हैं,
फसलों को बिन वर्षा जलते देख स्वयं भी जलते जाते हैं,

दिनों की राहत छीन गई, रात्रि में भी निंद्रा निषेध हो जैसे,
सूर्य का ये ग्रीष्मव्यूह हम भुवासियों के लिए अभेध हो जैसे,

हाथ थकते, पंखा झलते तत्पश्चात भी स्वेद से बदन तर है,
लू चल रही है बाहर, घर के अंदर भी व्यापत उसका डर है,

कोयल की कूक गुम है बागों से, पपीहरे भी तो लुप्त हैं कहीं,
हलचल स्वभाव अपना छोड़कर, ऋतुएँ भी मानो सुप्त हैं कहीं,

सूर्यदेव के बढ़ते जाते ताप से त्रस्त हुआ अब भूमंडल सारा है,
इंद्रदेव के आगे भी कर जोड़ते, प्रार्थना करते अंतर्मन ये हारा है,

चढ़ते हर पहर के साथ, व्याकुलता भी बढ़ती जाती है हर क्षण में,
आस लगाए बैठे हैं हम जन सब कि मिले आस कब किस कण में,

हर व्यथित मन की व्यथा सारी हम आपको भेंट में चढ़ाने आए हैं,
हे त्रिदेव, त्राहिमाम! हम अनुयायी आपके, आपकी शरण में आए हैं।

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